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हर धर्म की असहिष्णुता की शिकार है औरत

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हर धर्म की असहिष्णुता की शिकार हैं औरत -     सुषमा त्रिपाठी असहिष्णुता को लेकर देश का माहौल काफी गर्म रहा। गाय को बचाने वाले भी आगे रहे और गाय को महज जानवर बताकर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वालों ने बीफ खाकर को शांतिप्रिय साबित करने की काफी कोशिश की। वैसे सभी धर्मों के नुमाइंदों और समाज के स्वयंभू पहरेदारों में एक बात को लेकर समानता तो है कि इनमें से हर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को अपने तलवों के नीचे रखने में यकीन रखता है और यह समानता अमेरिका, ब्रिटेन से लेकर अरब और भारत में भी है। पश्चिमी देशों के शो बिज की दुनिया में महिला कलाकारों का अंग प्रदर्शन और एक्सपोजर वहाँ की विकसित महिलाओं का शोषण और मजबूरी है। अपने देश में ही किसी को मोबाइल रखने से औरत के बिगड़ने का डर है तो कोई देर रात तक सड़क पर घूमने वाली महिलाओं को अपराध की सजा दुष्कर्म करके देता रहता है। अरब में तो महिला को बलात्कार साबित करने के लिए भी चार पुरुषों की जरूरत पड़ती है और गाड़ी चलाने वाली महिलाओं के खिलाफ तो फतवे जारी कर दिये जाते हैं। रही बात भारत की तो यहाँ आज भी डायन बताकर महिलाओं की हत

सुजैट - पीड़ा जो बनी प्रेरणा

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सुजैट जॉर्डन, जब भी आप यह नाम लेते हैं तो उसका जिक्र पार्क स्ट्रीट पीड़िता के रूप में होता है मगर यह जाँबाज महिला, खुद को पीड़ित नहीं सरवाइवर, कहती थी और जिस हिम्मत के साथ उसने इंसाफ की लड़ाई बगैर किसी के साथ  के लड़ी, वह काबिलेतारीफ थी मगर कहीं न कहीं कम से कम मैंने समाज और शख्सियतों एक खौफनाक चेहरा देखा। जज ने फैसले में कहा है कि ये सजायाफ्ता तीन आरोपी सुजैट को सबक सिखाना चाहते थे, निर्भया के साथ दरिंदगी का खेल खेलने वालों ने भी उसे सबक सिखाने के लिए ही अपनी हैवानियत दिखायी। जाहिर है कि समाज के नुमाइंदों को औरतों के आगे बढ़ने और देर रात तक बाहर रहने से परेशानी है क्योंकि दुनिया के 80 प्रतिशत मर्द तो औरतों को अपनी सम्पत्ति ही समझते हैं जिसकी जिंदगी के कायदे - कानून वह खुद तय करना अपना अधिकार समझते हैं और गाहे - बगाहे हमारे देश के स्वयंभू नेताओं ने भी अपने बयानों से महिलाओं की अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान ही समझी हैं इसलिए मुलायम सिंह यादव को बलात्कारी भी बच्चे नजर आते हैं। 16 दिसम्बर आने वाला है और निर्भया की मौत के एक साल और गुजर जाएंगे मगर सुजैट ने तो वह जहर पीया और उ

वाइ ओनली मेन

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वाई ओनली मेन डांस इन इंडिया। फ्राँस से आयी शारर्टाल ने जब ये सवाल मुझसे पूछा तो मेरे पास कोई जवाब नहींं था। मैंने हमारी सभ्यता और संस्कृति की लफ्फाजी में उनको घुमाने की कोशिश की मगर छठ के हर गीत पर झूमती शार्टाल के लिए नृत्य उल्लास की अभिव्यक्ति है जो स्त्री और पुरुष का फर्क नहीं देखती मगर यह भारत है जहाँ खुलकर अभिव्यक्ति करने की छूट पितृसत्तात्मक समाज को है। स्त्रियाँ फिल्मों में पेड़ के इर्द - गिर्द नायक से गलबहियाँ करती तो अच्छी लगती हैं मगर वास्तविक जीवन में अगर कोई स्त्री इस तरह से अभिव्यक्ति करे तो सीधे उसकी परवरिश से लेकर चरित्र  पर ही सवाल उठेंगे। प्रकृति से मिले अधिकार भी लाज - संकोच और शर्म की बेड़ियों में बाँधकर हम खुद को सभ्य कहते है औऱ यही हिचक हम स्त्रियों में भी है। तुम्हारे सवाल का जवाब हमारे पास अभी नहीं है शार्टाल, उसकी तलाश जरूर कर रहे हैं हम
आइसक्रीम खाएंगे, जब मैंने रस्सी पर खेल दिखाती गौरी से बतियाने की कोशिश की तो गौरी का पहला वाक्य यही था। नीचे भीड़ खड़ी उसका तमाशा देख रही थी, पास ही कानून के पहरेदार भी थे मगर आँखों के सामने बालश्रम या यूँ कहें, कि बच्ची की जान को दाँव कर लगाकर तमाशा देखने वाले अधिक थे। गौरी 2 साल से ही सयानी हो चुकी है, घर चलाने के लिए और भाई के इलाज के लिए अपने भाई -बहनों के साथ खेल दिखाती है मगर उसकी छोटी सी आँखों में बचपन पाने की चाह को छोड़कर मैं कुछ नहीं देख पायी। माँ कहती है कि उसकी बेटी सब कर लेती है, बेटी जब खेल दिखाती है तो माँ और भाई नीचे चलतेे दिखे, भाई ऊपर जाता तो गौरी नीचे चलती। ऊँची पतली रस्सी पर खड़ी गौरी पता नहीं दुनिया को तमाशा दिखा रही थी या नीचे खड़े तमाशबीनों का तमाशा देख रही थी, पता नहीं मगर मन बहुत परेशान हो गया। गौरी मानों अब तक मेरा पीछा कर रही है, मैं उसकी कहानी पहुँचा सकूँ, इसके अलावा फिलहाल और कुछ नहीं कर सकती। माँ को भी दोष कैसे दूँ मगर दोषी फिर कौन है, गरीबी, व्यवस्था या कुछ और। पता नहीं मगर उसकी आवाज गूँज रही है - आइसक्रीम खाएंगे
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ऐसा लगता है कि पुरस्कार वापसी की रेल निकल पड़ी है जिसमें एक के बाद एक डिब्बे जुड़ते चले जा  रहे हैं। हर कोई खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने में जुटा है, वैसे ही जैसे बच्चे कक्षा में प्रथम आने की तैयारी कर रहा हो। हर कोई रूठा है, हर किसी को शिकायत है मगर जख्म पर मरहम लगाने की अदा ही शायद लोग भूल गये हैं। दादरी से लेकर दिल्ली तक, हर जगह माँ भारती कराह रही है। पुरस्कारों से तौबा करने की जगह शायद नफरत से तौबा होती तो कोई राह भी निकलती। काश, लोग समझ पाते कि राम और रहीम, दोनों इस जमीन के ही बेटे हैं। खून किसी का भी बहे, चोट तो माँ को ही लगनी है। 
पत्रकारिता जगत में एक दशक तो हो गया, जब आयी थी तो हिन्दी अखबारों में महिलाएं देखने को नहीं मिलती थीं और आज हैं तो होकर भी जैसे नहीं हैं। अखबारों में जिस तरह से खबरों में उनको किसी मसालेदार सब्जी की तरह परोसा जाता है, उसे देखकर कोफ्त होती है। सच तो यह है कि भारतीय हिन्दी अखबार अभी तक पत्रकारिता क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। खासकर आपराधिक खबरों में तो या उनको अपराधी की तरह या फिर वस्तु की तरह पेश किया जा रहा है और कहीं कोई  प्रतिरोध नहीं है। कदम पर महिला पत्रकारों के मनोबल को तोड़ने का प्रयास चलता रहता है। वे मनोरंजन और जीवनशैली से लेकर शिक्षा स्तर और राजनीतिक स्तर पर कवरेज कर सकती हैं मगर निर्णय में उनकी भागीदारी हो सकती है, यह बात कोई समझने को तैयार नहीं है और तब तक यह बात नहीं समझी जाएगी जब तक महिलाएं उनको समझने पर मजबूर न कर दें।