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दीया विश्वास है, दीया संघर्ष है, दीया परिवर्तन है

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दीपावली बीत चली मगर दीयों का नाता किसी एक दिन से तो नहीं होता तो बात कही जा सकती है । भारतीय संस्कृति में दीयों का अपना महत्व है। हर साल दीपावली आती है और चली जाती है मगर कभी इस बारे में इस तरह से नहीं सोच सकी जैसे आज सोच रही हूँ। छोटी चीजों पर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता जब तक कि हमें उनकी जरूरत न पड़ती हो। दीया उनमें से एक है। पूजा के दौरान दीये की याद आती है, दीपावली के दौरान हमें इसकी याद आती है। दीयों पर कई तरह की कविताएं लिखी गयीं मगर अवसर के अनुसार लिखी गयीं। दीया और वह भी मिट्टी का दीया बहुत साधारण सी चीज है। कुम्भकारों को आमतौर पर दीपावली के दौरान या पूजा के दौरान याद आता है, मांग भी बढ़ जाती है। इधर अयोध्या में दीपोत्सव के दौरान लाखों दीये जलाने की परम्परा चल पड़ी है, सांस्कृतिक दृष्टि से ही नहीं, आर्थिक दृष्टि से भी इसका अपना महत्व है मगर बात जब भक्ति की हो तो वहां आडम्बर नहीं, निश्चलता देखी जाती है, दीया चाहे सोने का हो, चांदी का हो या मिट्टी का हो..निश्चलता उसमें कूट - कूटकर भरी है। वह प्रकाश भले ही किसी और से पाता है मगर जब तक जलता है, अन्धेर से लड़ता है। कितने परिश्रम

स्त्री - पुरुष की मित्रता को सामान्य बनाइए और स्कूलों में सिखाइए, अपराध कम होंगे

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बहुत सी चीजें अब भी भारतीय समाज के लिए किसी डर से कम नहीं हैं। इनमें से एक मुद्दा है स्त्री व पुरुष के सम्बन्धों को सही तरीके से लेकर चलना । दुःख की बात यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था से लेकर सामाजिक व्यवस्था तक में यह सिखाया ही नहीं जाता कि एक लड़का और लड़की अच्छे दोस्त भी हो सकते हैं। दोस्ती न भी हो तो मनुष्यता के नाते मैत्री व आदर अथवा स्नेह के भाव से एक साथ काम कर सकते हैं। हम उस समाज से आते हैं जहाँ स्त्री और पुरुष के बीच शरीर और दैहिक आकांक्षाओं का इतना बड़ा बवंडर खड़ा कर दिया गया है कि बचपन से ही एक लड़का अपनी बहन को छोड़कर दूसरी लड़कियों को माल समझता है। बचपन से ही वह मां - बहन की गालियां सुनते हुए और बड़ों को ऐसी गालियां देते हुए देखता है और यही वह अपने दोस्तों से लेकर सार्वजनिक स्थल पर करता है और दुःख की बात यह है कि उसे यह सब सामान्य लगता है । मां, बहन, बेटी को छोड़कर संसार में कोई और रिश्ता भी हो सकता है, यह किसी की समझ में आता ही नहीं है और गालियां भी इन रिश्तों के नाम पर ही दी जाती हैं। लड़कों की नजर में अगर कोई लड़की पसंद आ गयी तो वह किसी भी सूरत में उसकी ही होनी चाह

नेता ही नहीं, जनता भी किसी की नहीं होती

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कई बार मैं सोचती हूँ, हर एक कहानी सुखद अंत तक क्यों नहीं पहुंच पाती। जब पीछे मुड़कर देखने का मन करता है और पीछे मुड़ जाती हूँ तो सबसे पहले ध्यान कहानियों के अंत तक जाता है। भारत से हूँ और भारतीयता की ही बात करुँगी,आख्यानों के सन्दर्भ में ही बात करूँगी। इस सृष्टि की रक्षा के लिए सदा से ही ईश्वर कई रूप लेकर धरती पर उतरते रहे हैं...वैसा ही जीवन जीते हैं..जैसा एक मनुष्य जीता है। उतने ही कष्ट, उतनी ही लांछनाएं और उतने ही कलंक उनको मिलते हैं जो एक साधारण मनुष्य की सोच से भी बाहर है मगर इतना कुछ होने पर भी वह सत्य और सृजन का मार्ग कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वे ईश्वर हैं। पौराणिक कहानियों के आभामण्डल में दबे अन्धकार पर नजर डालिए तो पता चलता है, किसी का भी जीवन आसान नहीं था..किसी का भी जीवन सुख से भरा हुआ नहीं था..व्यक्तिगत जीवन में हम जिनको अवतार समझते हैं, उनको भी मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा है। पत्थर वही लोग उठाया करते हैं जिन्होंने पत्थर कभी खाया न हो। मेरी समझ में जनता का हाल सदा से यही रहा है..राजा से लेकर राजगद्दी तक और लोकतंत्र की भाषा में प्रधानमंत्री से लेकर कुर्सी तक...हमेशा से बु

जिंदगी के सितार पर छेड़ा गया जीजिविषा का मधुर राग प्रेम शर्मा मैम

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जीवन में कुछ लोग होते हैं जो आपको जीने की राह तो दिखाते ही हैं, वह हिम्मत भी बन जाते हैं । वह आपके पास रहें या न रहें...आप उनकी उपस्थिति को महसूस कर सकते हैं...मैं बार - बार कहती हूँ कि मैं जो कुछ हूँ...मेरे विश्वास के कारण, अपनी शिक्षिकाओं के कारण हूँ, अपने दोस्तों के कारण हूँ..। मेरी कहानी में परिवार रक्त सम्बन्धों से नहीं जुड़ा..वह हृदय से जुड़ा है । जब स्कूल में पढ़ती थी तो प्रिंसिपल रूम के सामने एक क्लास चलती थी..तब मैं सातवीं या आठवीं में थी। उस क्लास में जो शिक्षिका बैठती थीं...उनकी कक्षा के बाहर हम अपनी प्रैक्टिस के लिए..चूंकि गाती थी तो उस समय सूद मिस (स्व. कृष्ण दुलारी सूद) के सामने हम छात्राओं को अभ्यास करना होता था। मिस गाना सुनती थीं...जब तक उनको तसल्ली न होती...हमारा गाने का अभ्यास चलता रहता...तब वह शिक्षिका मेरे लिए कौतुहल ही थीं। नाम भी बाद में पता चला....प्रेम शर्मा...मैं यह नहीं कह सकती कि मैं पहले से उनको प्रिय थी क्योंकि स्कूल में उनसे पढ़ने का मौका नहीं मिला । लंबा अरसा बीत गया...स्कूल के बाद कॉलेज..कॉलेज के बाद विश्वविद्यालय....लंबा वक्त गुजरा...बहुत से उतार -च

आज के डिजिटल युग में फोटोग्राफर नहीं, कैमरा बोलता है

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मुझे सर मत कहा कीजिए…ये सर – वर सुनना पसन्द नहीं है । यह 2004 की बात है जब पत्रकारिता के क्षेत्र में मैंने कदम रखा ही था । सन्मार्ग में फोटो बाबू और गुरू जी के नाम से प्रख्यात सुधीर जी ने स्पष्ट शब्दों में यह बात तब कही थी जब अपने पहले असाइन्मेंट को लेकर गयी थी और छायांकन की जिम्मेदारी उनकी थी । अक्खड़ कहिए फक्कड़ कहिए..तब बहुत अजीब लगा था कि ये ऐसे बात क्यों कर रहे हैं । यह भी सुना कि वह नाराज बहुत जल्दी होते हैं…पत्रकारिता के क्षेत्र में जब दो दशक बीत रहे हैं तब समझ आ रहा है कि उनकी नाराजगी एक जायज नाराजगी थी । बहरहाल, मैंने उनका निर्देश मानकर हमेशा उनको सुधीर जी कहा…वह सबकी मदद करते थे…आपके प्रति उनका व्यवहार आपके व्यवहार पर निर्भर करता है मगर मेरे लिए वह सदैव आदर के पात्र रहे । हां…अपने अंतिम समय से कुछ साल पहले एक दुःखद घटना के कारण मेरे प्रति उनकी नाराजगी के बाद भी…क्योंकि उनकी जगह कोई भी होता तो यही करता…पत्रकारिता में कुछ लोग पिता की तरह रहे…सुधीर जी उनमें से एक रहे । वह नारियल की तरह थे…अन्दर से सख्त मगर अन्दर मिठास भरी थी। आपने उनको जब समझ लिया तो उनके अन्दर करुणा भरा हृद

भारतीय पत्रकारिता में राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय चेतना और पत्रकार

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जब भी लिखिए...कर्मचारी बनकर नहीं बल्कि एक भारतीय बनकर, एक मनुष्य बनकर लिखिए । नये भारत में समानता, उदारता, भारत की अखंडता, जागरुकता लाने में जनता को सच बताने में पत्रकारिता और पत्रकारों की बड़ी भूमिका है और हम पत्रकारों को इस भूमिका का निर्वहन वैसे ही करना होगा जैसे हमारे पूर्वजों ने नवजागरण काल में किया, वैसी ही मशाल जलानी होगी जो पराधीन भारत में जली और सूर्य उदित हुआ । पत्रकारिता की चेतना का सूर्य भी उदित होगा...अवश्य होगा और भोर का सूरज समाज के हाथ में हम पत्रकार ही रखेंगे राष्ट्रीयता आज के दौर में बहुचर्चित शब्द है और लम्बे समय के बाद इस शब्द को लेकर इतने विवाद हो रहे हैं । राष्ट्रीयता का आशय यदि भारतीयता से हो तो निश्चित रूप से यह एक सकारात्मक शब्द है मगर जब राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को जब आप विशेष धर्म के दायरे में समेटने लगते हैं तो वहाँ पर समस्या होती है और आज यही हो रहा है । आज पत्रकारिता के क्षेत्र में हर मीडिया हाउस का अपना राष्ट्रवाद है, अपनी परिभाषा है मगर सत्य कटु होने पर भी कहना पड़ा रहा है कि मीडिया की नीतियों का, उसकी सोच की अपनी कोई धारणा मुझे नहीं दिखती,

नव गति..नव लय..नव स्वर ...शुभ सृजन प्रकाशन

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शुभ सृजन प्रकाशन....यह एक सपना था....जो अब पूरा हुआ है । एक राह है जिस पर चलने का मन लम्बे...बहुत लम्बे समय से था । पढ़ते हुए जब कभी कोई पत्रिका पलटती तो मन कहता...एक दिन मैं भी कोई पत्रिका निकालूँगी और लोग ऐसे ही पलटेंगे...उसे खूब प्रेम मिलेगा । सपने ही तो जीवन को दिशा देते हैं..मैंने भी सपने देखे...और उनकी ओर बढ़ती चली गयी..और ईश्वर की कृपा से धीरे - धीरे बढ़ती चली गयी । आज जब यह लोगो तैयार कर रही थी..मन में एक साथ कई सारे भाव उमड़ - घुमड़ रहे थे । किताबें लिखते हुए..प्रकाशित करवाते हुए कई खट्टे - मीठे और कड़वे अनुभव हुए और तब लगा कि यह तो मेरी ही नहीं बहुतों की कहानी है । कहा जरूर जाता है कि नये लोगों को मौका दिया जाए..उनकी प्रतिभा को सामने लाया जाए मगर वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है । नये लोगों की किताबें नामचीन दिग्गजों की किताबों के ढेर के नीचे दबी रह जाती हैं ..उनके पास नाम नहीं है...उनके पास इतने रुपये नहीं हैं...उनकी इतनी पहुँच नहीं है तो उनके लिए आगे बढ़ने का एकमात्र मार्ग रह जाता है कि वे किसी बड़ी नामचीन हस्ती के पीछे रहें...उनकी सिफारिश से अपना काम निकलवाएं या फिर पढ़ -