सफलता की लिफ्ट अक्सर गिराती है, सीढ़ियों का सहारा लीजिए..इस्तेमाल मत कीजिए

पेशेवर जीवन के दो दशक से अधिक का समय बीत चला है तो आज कई बातें उन महत्वाकांक्षी युवाओं और अवसरवादी संस्थानों से कहने का मन हो रहा है जो अपने संस्थानों के विश्वसनीय एवं निष्ठावान पुराने कर्मचारियों की भावनाओं के साथ शतरंज खेलते हैं । कर्मचारी जो रसोई में तेजपत्ते की तरह होते है, पहले उनको चढ़ाया जाता है, नींबू की तरह निचोड़ा जाता है और फिर जब वह सीनियर बनते हैं तो दूध में मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। आजकल सबकी शिकायत रहती है कि निष्ठावान लोग नहीं मिलते। जो नये लोग मिलते हैं..वह संस्थान को प्रशिक्षण संस्थान समझकर सीखते हैं और चल देते हैं। एक बार आइने में खड़े होकर देखिए और आपको पता चल जाएगा कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। सबसे बड़ी बात यह है कि मालिकों को अब खुद से पूछना चाहिए कि क्या वह इस लायक हैं कि उनको कोई समर्पित कर्मचारी मिले जो उनके संस्थान के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दे। कॉरपोरेट जगत वकालत कर रहा है कि कर्मचारियों को 70 घंटे काम करना चाहिए..सवाल है क्यों करना चाहिए...और सबसे बड़ी बात आखिर इसके बाद कर्मचारियों को क्या मिलना है? क्या जिन्दगी में पैसा ही सब कुछ है और...