नेता ही नहीं, जनता भी किसी की नहीं होती

कई बार मैं सोचती हूँ, हर एक कहानी सुखद अंत तक क्यों नहीं पहुंच पाती। जब पीछे मुड़कर देखने का मन करता है और पीछे मुड़ जाती हूँ तो सबसे पहले ध्यान कहानियों के अंत तक जाता है। भारत से हूँ और भारतीयता की ही बात करुँगी,आख्यानों के सन्दर्भ में ही बात करूँगी। इस सृष्टि की रक्षा के लिए सदा से ही ईश्वर कई रूप लेकर धरती पर उतरते रहे हैं...वैसा ही जीवन जीते हैं..जैसा एक मनुष्य जीता है। उतने ही कष्ट, उतनी ही लांछनाएं और उतने ही कलंक उनको मिलते हैं जो एक साधारण मनुष्य की सोच से भी बाहर है मगर इतना कुछ होने पर भी वह सत्य और सृजन का मार्ग कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वे ईश्वर हैं। पौराणिक कहानियों के आभामण्डल में दबे अन्धकार पर नजर डालिए तो पता चलता है, किसी का भी जीवन आसान नहीं था..किसी का भी जीवन सुख से भरा हुआ नहीं था..व्यक्तिगत जीवन में हम जिनको अवतार समझते हैं, उनको भी मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा है। पत्थर वही लोग उठाया करते हैं जिन्होंने पत्थर कभी खाया न हो। मेरी समझ में जनता का हाल सदा से यही रहा है..राजा से लेकर राजगद्दी तक और लोकतंत्र की भाषा में प्रधानमंत्री से लेकर कुर्सी तक...हमेशा से बुरे ही माने गए हैं। जनता भोली – भाली, सीधी – सच्ची ही रही है...ऐसा कहा जाता रहा है मगर कहिए तो जनता ने क्या अपने राजा का साथ हमेशा हर परिस्थिति में दिया है? कटु सत्य यही है कि नेता हो या राजा..जनता कभी किसी की नहीं रही, वैसे ही जैसे कुर्सी कभी किसी की नहीं होती। हर एक अच्छे नेता चकाचौंध और राजनीति का शिकार होना ही पड़ा है। व्यक्तिगत जीवन में जितना कुर्सी पर बैठा व्यक्ति खो देता है, हम उसका दशांश भी नहीं खोते। उसका जीवन सार्वजनिक होता है इसलिए उसके चरित्र और उसके व्यक्तित्व की छीछालेदर सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर की जाती है, उतना अगर हमारी आपकी जिन्दगी में होता तो न जाने हम क्या कर जाते हैं...मगर काम करना है तो चमड़ी को मोटा करना ही होगा। हार हो या जीत हो, हर परिस्थिति में आपको अपने कर्तव्य निभाने के लिए आगे आना ही होगा, अपनी इच्छाओं और भावनाओं को मारकर, उन सभी आरोपों को सुनते हुए..जो आपने किए ही नहीं..सिंहासन सुखों का ताज नहीं, कांटों की शय्या होता है। सोचती हूँ यही लोग तब भी रहे होंगे जिन्होंने सीता के चरित्र पर उंगली उठाई...वरना राम तो सीता से बहुत प्रेम करते रहे होंगे..इसी जनता ने सीता को राम से दूर किया । इसी जनता ने राधा को कृष्ण से दूर किया..इसी जनता ने द्रोपदी के धवल चरित्र पर दाग लगाया। जनता किसी की नहीं होती, वह किसी सेवाभाव को नहीं जानती..वह या तो भूख को जानती है..धन को जानती है या फिर भय को जानती है। उसे त्याग करने वाले की पूजा करनी आती है मगर त्याग करने वाले के लिए कुछ भी छोड़ना नहीं आता। वह क्रांति चाहती है मगर उसे आग पर चलने में कोई रुचि नहीं है। परिवर्तन की अग्नि में जलकर यदि कोई निखर गया और अग्नि से जनता को लाभ मिला तब तो ठीक है वरना वह यही कहेगी..हमने तो कहा ही था कि मत करो...देखो जलकर मर गया..। जनता अपना फायदा देखती है और जाति भी..लोकसभा चुनाव में अधीर जैसे दिग्गज नेता का हार जाना..यही बताता है। दलबदलू नेताओं की बात की जाती है मगर दल तो जनता भी बदलती है। अयोध्या में विकास हुआ मगर घर टूटे तो विकास करवाने वाले वहां से हार गए। बंगाल में लक्ष्मी भंडार ने विवेक खत्म कर दिया तो संदेशखाली की चीखें पीछे छूट गयीं। हम अभी भी इतने परिपक्व नहीं हुए कि स्त्री – पुरुष के सम्बन्धों को सहजता से ले सकें....हमें कोई न कोई मसाला उसमें डालना ही है, बगैर यह देखे कि उसकी आंच कहां तक जाएगी। हम यह भी नहीं जानते कि सच क्या है मगर हमें तो मनोरंजन चाहिए और तमाशा चाहिए, फिर क्या हुआ कि इसके लिए हमें दो दिग्गज और अलग – अलग लोगों की छवि का मटियामेट करना पड़े। इंटरनेट पर चला रहा मेलोडी ट्रेंड ऐसा ही विचित्र ट्रेंड है। किसी ने कहा है कि पुरुष की एक सुलझी हुई दृष्टि स्त्री को कई उलझनों से बचा लेती है. मैं कहती हूँ कि जनता की एक सुलझी हुई सहज दृष्टि देश और समाज को कई विडम्बनाओं से बचा सकती है, विवेक सिर्फ राजा के पास ही नहीं, जनता के पास भी होना जरूरी है। स्वीकार कीजिए कि प्रेम को किसी नाम की जरूरत नहीं पड़ती. वह जो है, जैसा है, उसे स्वीकार करना उचित है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दिल्ली का वह सफर जिसने अपनी सीमाओं को तोड़ना सिखाया

जमाना थाली के बैंगन का है

बीएचयू के वीसी,शिक्षकों, छात्रों और वहाँ के लोगों के नाम खुला पत्र