अपने हिस्से का आसमान समेटती अकेली औरतें


- सुषमा त्रिपाठी

अकेली महिला, जब भी ये शब्द जेहन में आता है तो महिला की लाचार छवि बहुतों के दिमाग में कौंध उठती होगी। साहित्य से लेकर सिनेमा और समाज में भी महिला का अकेली होना अभिशाप ही माना जाता रहा है और इस बात की परवाह किए बगैर कि वह खुद इस बारे में क्या सोचती है। औरत अकेली क्या हुई, लोग उसे अपनी सम्पत्ति समझ बैठते हैं और यह भी कड़वी हकीकत है कि महज अकेले होने के कारण उसे आपत्तिजनक और कुछ हद तक बेहूदे प्रेम प्रस्तावों से गुजरना पड़ता है। इनकार किया तो चरित्र पर उँगलियाँ उठेंगी और हाँ कर दी तो उस पर एक एहसान लाद दिया गया मगर अब ये पन्ने पलट रहे हैं क्योंकि अब अकेली होने का मतलब लाचारी नहीं है बल्कि एक ऐसी सशक्त महिला की छवि सामने आती है जो अपने फैसले खुद करती है, जो अपना सम्मान करना जानती है और मातृत्व का सुख प्राप्त करने के लिए उसे किसी पर निर्भर होने की जरूरत नहीं पड़ती और सबसे अच्छी बात यह है कि उनके बच्चे उनका सम्मान करते हैं और उनको समझते हैं। यकीन न हो तो नीना गुप्ता और मसाबा गुप्ता पर नजर डालिए। विवियन रिचर्ड्स से उनकी शादी नहीं हुई थी मगर नीता ने मसाबा को न सिर्फ जन्म दिया बल्कि उसे योग्य भी बनाया़। हालाँकि नीना ने बाद में शादी की मगर तब तक मसाबा बड़ी हो चुकी थीं। सुस्मिता सेन और रवीना टंडन जैसी महिलाओं ने बेटियाँ गोद लेकर एक नयी मुहिम चलायी। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे बहुत सी महिलाओं को हौसला और हिम्मत, दोनों मिले। अब यह सिलसिला बंगाल में भी देखा जा सकता है। फिल्मकार आनिंदिता सर्वाधिकारी उन महिलाओं में से हैं जो अपने दम पर चलना जानती हैं। थियेटर के माहौल में पली - बढ़ी आनिंदिता सिंगल मदर्स के लिए एक मिसाल ही नहीं बल्कि अकेले जी रही उन तमाम महिलाओं के लिए एक उम्मीद हैं जिन्होंने अविवाहित जीवन का मतलब एकाकीपन मान लिया है। वह कहती हैं कि मेरे लिए बच्चा होना काफी मायने रखता है और यह निर्णय लेने में मुझे 2 साल लग गए। आज उनका बेटा अग्निसात उनकी दुनिया बन चुका है और वे एक खुशमिजाज माँ हैं। आनंदिता अकेली नहीं हैं बल्कि मातृत्व का सुख पाने के लिए बहुत सी लड़कियाँ और महिलाएं बंधी - बंधायी विचारधारा को चुनौती दे रही हैं। एक समय था जब अविवाहित होना या तलाकशुदा होना महिलाओं के लिए कहीं न कहीं आसान नहीं था और आस - पास की सामाजिक परिस्थितियाँ उसे यह जबरन महसूस करवाती थीं कि शादी न करना या तलाक लेना एक पाप है। खासकर तलाक के मामलों में तो किसी भी महिला के चरित्र पर ही सवाल खड़े होते थे और पूरी परिस्थिति के बाद उसके लिए जिंदगी आसान नहीं रहती थी। आज इस आवरण को लड़कियाँ उतारकर ङ्गेंक रही हैं। उनको न तो अब सिंगल मदर होने में कोई दिक्कत है और न ही तमाम तकलीफें सहकर सिर्फ बच्चों के लिए अपनी पूरी जिंदगी दाँव पर लगाने की मजबूरी है। यह दौर उस सशक्त महिला का है जो अपने दम पर न सिर्फ खुद जीना सीख रही है बल्कि मातृत्व का सुख भी उठाना जानती है और इसके लिए शादी अब कोई बंधन नहीं है। आनंदिता कहती हैं कि मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ कि कुदरत ने मुझे माँ बनने की ताकत दी है। मैं इसे जाया नहीं होने दे सकती थी। शारीरिक तौर पर माँ बनने के लिए एक समय सीमा है मगर शादी भावनात्मक मामला है और वह बाद में भी की जा सकती है। प्यार और शादी जैसी बातें इंतजार कर सकती हैं मगर मातृत्व की समय सीमा नहीं। मैंने स्पर्म बैंक से स्पर्म खरीदा मगर मेरा बेटा अग्निसात दूसरी कोशिश के बाद हुआ। डॉक्टर मुझे हैरत से देखते थे मगर मुझे अस्पताल में भी प्यार मिला और अब भी मिल रहा है। मातृत्व का यह सफर काफी खूबसूरत है और अब काम पर भी मुझे जल्दी लौटना है। अब एक बेटी गोद लेना चाहती हूँ। ईश्‍वर ने हमें एक ही जिन्दगी दी हैं, इसे खुलकर जीना चाहिए। अब यह शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि छोटे जिलों और शहरों में भी यह देखा जा रहा है। बंगाल के मुर्शिदाबाद में 53 साल की कालीदासी हल्दर ने 53 साल की उममें सिंगल मदर बनकर अपनी खुशियों को तवज्जो दी है। एक अँगेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में कालीदासी ने बताया कि परिवार की देखरेख करने में अपनी शादी के बारे में सोचने का मौका ही नहीं मिला। एक अखबार में विर्टो ङ्गर्टिलाइजेशन प्रक्रिया पर उनकी नजर गयी और फिर उन्होंने इस पर किताब खरीदी। हालाँकि सामाजिक और नैतिकता के मोर्चे पर यह कठिन फैसला कालीदासी के लिए इतना आसान नहीं था। परिवार उनके साथ खड़ा नहीं हुआ मगर पड़ोसी उनका अकेलापन समझते थे। तमाम शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तकलीङ्गें सहकर भी आज अपनी बेटी कत्थककली की परवरिश कर रही हैं। सिंगल मदर्स के लिए प्रशासनिक स्तर पर दस्तावेज हासिल करना भी एक मुश्किल काम है मगर वे अब हार नहीं मानतीं। इस हिम्मत का नतीजा है कि अब उनके हिस्से का सम्मान और उनके हिस्से का अधिकार उनको मिल रहा है। देखा जाए तो सिंगल मदर कोई आधुनिक शब्द नहीं है बल्कि अकेली माँओं ने अक्सर अपने बच्चों को अपने दम पर खड़ा किया। सीता हो या कुंती या ङ्गिर यशोधरा, अपने समय में एक समय के बाद ये महिलाएं अकेली ही थीं मगर आज ये सभी मातृत्व के लिहाज से मिसाल बन चुकी हैं। ङ्गर्क यह है कि तब समय और था और सामाजिक परिस्थितियों ने उनका साथ नहीं दिया मगर आज अकेली महिलाएं समाज का नजरिया ही नहीं बदल रहीं बल्कि अपने हिस्से की खुशियाँ बटोरने के साथ बिखेर भी रही हैं।

(आलेख महिला दिवस पर सलाम दुनिया हिन्दी दैनिक में मार्च 2016 को प्रकाशित)

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