जीतने वाला नायक भले हो मगर हारने वाला खलनायक नहीं होता



रियो ओलम्पिक्स में साक्षी मलिक और पी वी सिन्धु के पदक जीतने और दीपा कर्माकर के चौथे स्थान पर रहने के बाद महिला सशक्तीकरण के प्रचारकों की बाढ़ आ गयी है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और बेटी खिलाओ जैसे नारे लग रहे हैं तो कहीं पर इस प्रदर्शन मात्र से परिस्थिति में बदलाव की उम्मीद की जा रही है। साक्षी का पदक जीतना इसलिए भी खास है क्योंकि वह हरियाणा से हैं जहाँ लड़कियों का बच जाना ही बड़ी बात है। सिन्धु को लेकर अब आँध्र और तेलंगाना में जंग शुरू हो गयी है तो दूसरी ओर शोभा डे जैसे लोग भी हैं जो खिलाड़ियों पर तंज कसकर लाइमलाइट में आने के बहाने ढूँढते हैं और फटकार लगने के बाद सुर बदलने लगते हैं। समूचा हिन्दुस्तान रो रहा है कि हमारे खिलाड़ी पदक नहीं जीत सके और उनका प्रदर्शन बेहद लचर रहा। सच कहूँ तो महान के देश के हम नागरिक और यहाँ की व्यवस्था बेहद स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हैं जिनको किसी की तकलीफ से कोई मतलब नहीं। रियो के बहाने सशक्तीकरण की राह निकालने वालों से पूछा जाए कि क्या वे अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहेंगे तो जवाब होगा नहीं। दीपा कर्माकर और सिन्धु की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अपनी बेटियों को दुप्पटा सम्भालकर चलने की नसीहतें देते हैं और उनकी समूची इज्जत दुप्पटे में सिमट जाती है। सानिया की स्कर्ट और शादी का इतिहास खंगालने वाले अब बेटियों का सम्मान करने की सीख दे रहे हैं। क्या यह दोगलापन नहीं है? सचिन, सानिया और साइना जैसा भविष्य अपने बच्चों की चाहत सभी को होती है मगर क्या उनकी मेहनत और जज्बा और निःस्वार्थ जुनून आपमें हैं। अपने खिलाड़ियों की मेहनत को भूलने में भारतीय अव्वल हैं और उगते सूरज को सलाम करना हमारी फितरत है। कोई खिलाड़ी हारने के लिए नहीं खेलता, हार और जीत खेल का हिस्सा है। जीतने वाला नायक हो सकता है मगर हारने वाले को खलनायक बनाना जरूरी है? 125 करोड़ की आबादी वाले देश में खेल पर खर्च ही कितना किया जाता है और क्या आपके स्कूलों में भी मैदान हैं जहाँ बच्चे खेल सकें? लड़कियों के हाथ में पहले गुड़िया और बाद में बेलन थमाने वाले माँ बाप ने क्या कभी उनको बैडमिंटन का रैकेट थमाया है? यहाँ खिलाड़ी को इकोनॉमी क्लास में सफर करवाया जाता है तो कभी किसी खिलाड़ी को जूते तक नहीं मिलते। खेल मंत्री खिलाड़ियों के नाम तक नहीं जानते और अधिकतर माँ बाप का सपना बच्चों की सरकारी नौकरी होता है या डॉक्टर व मेडिकल में भेजना। महिला सशक्तीकरण के नारे लगाने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि इन महिलाओं की जीत के पीछे पुरुषों की भी मेहनत है, फिर भले ही व साक्षी और दीपा के पिता हों या सिन्धू के कोच पुलेला गोपीचंद। आपने ऐसे कितने प्रशिक्षकों को अवसर दिया है? खेल को खेल की तरह लीजिए क्योंकि आज जो हारे हैं, उन्होंने ही आपकी इज्जत कभी रखी है, फिर वह साइना हों, सानिया हों, अभिनव बिन्द्रा हों या योगेश्वर हों, हमें कोई हक नहीं बनता कि हम उनकी मेहनत का अपमान करें। एहसानफरामोशी छोड़कर उनके जज्बे को सलाम कीजिए जो सहूलियतें न होने के बावजूद अपनी जिद के दम पर पूरी दुनिया के सामने खड़े हुए। भारतीय खिलाड़ियों, आपको सलाम कि आप इस एहसानफरामोशी और तमाम दिक्कतों के बावजूद लड़ते हैं, आज हार हुई है तो कल आप जरूर जीतेंगे, हौसला मत छोड़ना कभी।

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