निराला की तरह अकेले समय को चुनौती देते हैं जटिल मुक्तिबोध

मुक्तिबोध परेशान करने वाले कवि हैं। वो परेशान करते हैं क्योंकि वे आसानी से 
समझ में नहीं आते और एक जटिल कवि हैं। इनकी कविताओं में संघर्ष है मगर इस 
संघर्ष को वे चमकीला बनाने की कोशिश नहीं करते इसलिए वे नीरस कवि भी हैं। जब तक आप मुक्तिबोध के जीवन की कठिनाइयों को नहीं समझते, तब तक आप उनकी कविताओं का सत्य भी नहीं समझ सकते। मुझे मुक्तिबोध के जीवन और कविताओं में कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की झलक मिलती है। दोनों की कविताओं और जीवन का संघर्ष एक जैसा ही है और जो उपेक्षा तत्कालीन साहित्यिक और सामयिक वातावरण से इन दोनों कवियों को मिली, वे स्वीकार नहीं कर सके और दोनों की मृत्यु कारुणिक परिस्थितियों में ही हुई।
मुक्तिबोध मूलत: कवि हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और 
परिभाषित है। वही उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के 
कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा, तो दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी 
प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता 
असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। जयशंकर 

प्रसाद, शमशेर, कुँवर नारायण जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की है, उसमें 

पर्याप्त विचारोत्तेजकता है और विरोधी दृष्टि रखने वाले भी उनसे बहुत कुछ सीख 

सकते हैं। काव्य की सृजन प्रक्रिया पर उनका निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी 

का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वह अत्यन्त गहन और तात्विक है। उन्होंने नयी 

कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय आलोचक नहीं हैं। 

उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और 

अनुभव की वही पारदर्शिता है, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती है। उन्होंने 

अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: 

ध्यान नहीं दिया जाता रहा। 'जड़ीभूत सौन्दर्याभरुचि' तथा 'व्यक्ति के अन्त:करण के 

संस्कार में उसके परिवार का योगदान' उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते हैं। डॉ 

नामवर सिंह के शब्दों में - "नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है ,जो छायावाद 

में निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य 

काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस 

सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।
हिन्दी की कविताओं में संघर्ष हो सकता है मगर बात जब कवियों का साथ देने और उनके संघर्ष में साथ खड़े होने की आती है तो कोई साहित्यिक आंदोलन ठोस रूप में नजर नहीं आता। मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि जरूर हैं मगर हम यह बात पुख्तगी के साथ नहीं कह सकते कि हिन्दी साहित्य जगत ने उनको अभी भी उनका प्राप्य दिया है। हम कवियों और साहित्यकारों को समय रहते नहीं सहेजते और उनके गुजरने के लंबे अरसे बाद उनकी शान में कसीदे पढ़ते हैं और मुक्तिबोध के मामले में भी यही हुआ। मुक्तिबोध के लिए कविता और जीवन अभिन्न थे। उनका समस्त साहित्य उस संवेदनशील रचनाकार की मार्मिक अभिव्यक्ति है जिसने अपने युग-यथार्थ को बाह्य एवं आंतरिक दोनों स्तरों पर गहराई से महसूस किया। दिमागी गुहान्धकार का ओरांग ओटांग कविता में वे कहते हैं -   
सत्य के बहाने
स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना।
अहं को, तथ्य के बहाने।
मेरी जीभ एकाएक ताल से चिपकती
अक्ल क्षारयुक्त-सी होती है
और मेरी आँखें उन बहस करनेवालों के
कपड़ों में छिपी हुई
सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखती!!
और मैं सोचता हूँ...
कैसे सत्य हैं--
ढाँक रखना चाहते हैं बड़े-बड़े
नाख़ून!!

स्वाधीनता के बाद, देश जिस भ्रष्ट, शोषक और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के दंश को झेल 

रहा था मुक्तिबोध अपनी कविताओं में उस व्यवस्था का असली चेहरा सामने लाते हैं 

और साथ ही उसमें व्यक्ति की अपनी भूमिका पर प्रश्न -चिन्ह लगाते हैं। राजनीतिज्ञोंपूँजीपतियों एवं बुद्धिजीवियों की दुरभिसंधि के बीच मध्यवर्ग की उदासीनता जिस संकट को जन्म दे रही थी मुक्तिबोध का साहित्य उसका विस्तृत वर्णन है। अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति के खतरेउठाते हुए उन्होंने वस्तु और रूप के स्थापित ढाँचों को चुनौती दी। सम्भवतः स्थापित मान्यताओं को चुनौती देने के कारण भी उनको अपने समय में स्वीकृति नहीं मिली बल्कि सवालों और चुनौतियों से जूझना पड़ा। कामायनी : एक पुनर्विचार में उन्होने यही किया है। इसीलिए अपने समय में उनका साहित्य चर्चित होने के साथ-साथ बहुविवादित भी रहा और उसका समुचित मूल्यांकन उनके जीवन-काल के बाद ही संभव हो पाया।
 1958 में राजनांद गाँव के दिग्विजय कॉलेज में वे प्राध्यापक हो गए। यहाँ रहते हुए 

उन्होंने अपना सर्वोत्तम साहित्य रचा। ब्रह्मराक्षसऔर अँधेरे मेंतथा अन्य कई महत्वपूर्ण
कविताओं के साथ-साथ ‘काठ का सपनासतह से उठता आदमी’ (कहानी-संग्रह), ‘विपात्र’ (उपन्यास) आदि की रचना इसी समय में हुई। यहीं उन्होंने कामायनीः एक पुनर्विचारको भी अंतिम रूप दिया।
ज़िन्दगी जब एक सुखद भविष्य की ओर करवट ले रही थी तभी मुक्तिबोध के साहित्यिक जीवन में एक और बड़ी दुर्घटना घटी। 1962 में उनकी पुस्तक भारत: इतिहास और संस्कृतिपर मध्यप्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। इस घटना ने मुक्तिबोध को बुरी तरह झकझोर दिया। चाँद का मुँह टेढ़ा है की इन पँक्तियों को देखना जरूरी है –
भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह !!
गगन में कर्फ्यू है
धरती पर चुपचाप जहरीली छिः थूः है !!
पीपल के ख़ाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं ख़ाली हुए कारतूस।
गंजे-सिर चाँद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे हैं !!
चाँद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती हैं
अँधेरे में, पट्टियाँ।

 उन्हें अपने आस-पास हर ओर एक षड्यंत्र दिखाई पड़ने लगा। भयंकर असुरक्षा की भावना उन्हें घेरने लगी जिसके परिणामस्वरूप फरवरी 1964 में उन्हें पक्षाघात का झटका लगा। कई लेखक साथियों के अनुरोध पर सरकारी मदद से उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती किया गया लेकिन उच्च चिकित्सा व्यवस्था भी उन्हें बचा न सकी। 11 सितंबर, 1964 को मुक्तिबोध को अपनी पीड़ा से छुटकारा मिल गया। कवि के जाने के बाद उनकी स्मृतियाँ और उसका परिवार समूचे परिदृश्य से या तो गायब रहता है या फिर प्रशासनिक दया पर निर्भर रहता है। उनको सामने लाने की कोशिश नहीं की जाती और इस क्रम में भावी पीढ़ी भी साहित्य से किनारा करती है। मुक्तिबोध की कविताओं में फिर भी उम्मीद जिंदा है मगर सच तो यही है कि हिन्दी का कवि हमेशा से अपने संघर्ष में अकेला ही रहता है, स्वीकृति मिलने के लिए उसे मुक्तिबोध की तरह मौत का इंतजार करना पड़ता है और यही हमारी हार है मगर हमें उम्मीद को मुक्तिबोध की तरह जिंदा रखना होगा -

हमारी हार का बदला चुकाने आयगा 

संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर, 

हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर 

प्रकट होकर विकट हो जायगा !! 


(हिन्दी मेले के अवसर पर प्रकाशित बुलेटिन में छपा आलेख)


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