आखिर कोलकाता में महिला पत्रकारों पर बात हुई


आमतौर पर जब पत्रकारिता में महिलाओं पर चर्चा होती है तो वह दिल्ली तक सिमट जाती है मगर इस बार चर्चा हुई महानगर में।इस परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया में काम कर रही महिलाओं ने शिरकत की। वक्ताओं की नजर में यह परिचर्चा पत्रकारिता परिदृश्य के ठहरे हुए पानी में हलचल मचाने जैसी थी। इसका आयोजन मुश्किल मगर बेहद जरूरी था। चर्चा सार्थक रही और वक्ताओं ने विषय पर गम्भीरता से प्रकाश डाला। मैं और अपराजिता दोनों आभारी हैं। अपराजिता में खबर हैै मगर यहाँ जो दिया जा रहा है, वह अनप्लग्ड है मतलब बहुत अधिक सम्पादन नहीं किया गया है। पत्रकारों का बात करना जरूरी है चाहे वह महिला हो या पुरुष हो क्योंकि न बोलना, अभिव्यक्त न करना कुण्ठा को जन्म देता है, यही कुंठा ही हमारी सभी समस्याओं की जड़ है। हमें बात करनी होगी और पत्रकारिता के सभी माध्यमों के साथ पत्रकारों को भी एक साथ लाना होगा। प्रतियोगिता का मतलब एक दूसरे को नीचा दिखाना नहीं होता, अगर आप ऐसा करते हैं तो आप कमजोर हैं। हम एक साथ हाथ में हाथ डालकर, एक दूसरे की तारीफ कर, एक दूसरे का सहयोग करके आगे बढ़ सकते हैं और सृजनात्मक तरीके से आगे बढ़ सकते हैं। यह बहुत जरूरी है क्योंकि एक दूसरे को कष्ट देने का मतलब खुद को ही कष्ट देना है। संगोष्ठी में पत्रकारिता में महिला पत्रकारों की बदलती भूमिका और उनको जिस तरह से मीडिया में पेश किया जा रहा है, उस पर बात हुई। इस संगोष्ठी की कुछ वीडियो क्लिपिंग्स हैं जो छायाकार अदिति साहा ने उपलब्ध करवायी हैं। हम कोशिश करेंगे कि वह आपके लिए ब्लॉग पर हम ला सकें। संगोष्ठी की तस्वीेरें आप अपराजिता में देख सकते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार तथा ताजा टीवी समूह के चेयरमैन विश्वम्भर नेवर का कहना है कि आज महिला पत्रकारों की उर्जा का सृजनात्मक उपयोग जरूरी है। वेबपत्रिका अपराजिता के प्रथम वर्षपूर्ति समारोह में अपराजिता तथा रंगप्रवाह द्वारा भारतीय भाषा परिषद के सहयोग से आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि महिलाओं के लिए मीडिया में अवसर भी हैं और चुनौती भी हैं। भारतीय भाषा परिषद सभागार में आयोजित संगोष्ठी में उन्होंने कहा कि हमारी सामाजिक सीमाओं के कारण काम नहीं कर पातीं। पुरुष और महिलाओं के बीच सहयोग की भावना जरूरी है। छोटे शहरों से महिलाओं का उभरना बड़ा कठिन है। आज मीडिया में लड़कियों का प्रवेश बाढ़ के पानी की तरह है जिसका सृजनात्मक उपयोग आवश्यक है। अखबारों के सम्पादकों के सामने यह बड़ी चुनौती है। हमारे देश में महिला पत्रकारों के लिए अनुकूल सामाजिक परिवेश होना चाहिए। यह ज्वलंत और ज्वलनशील विषय है। स्त्री बहुत अच्छी कहानी हो सकती थी। अखबारों में सम्पादकों के नाम पत्र लिखता था और 99 प्रतिशत पत्र मैं खुद लिखता था। पहले महिलाओं के स्तम्भ भी महिलाओं के नाम से पुरुष लिखा करते थे। महिलाओं की समस्या उनके परिवार और उनके शादी जैसे सामाजिक कारणों को लेकर है। अखबारों और टीवी को अच्छी नजरिए से देखा नहीं जाता था। कई अच्छी प्रतिभाएं समाप्त हो गयीं। कई लड़कियाँ पत्रकारिता नहीं मॉडलिंग या अभिनय करना पसन्द करती हैं। 50 साल पहले लड़कियों के लिए कोई काम नहीं था। आज भी कुछ क्षेत्रों को चुनकर उनके लिए कड़ी चुनौती है।

वरिष्ठ आलोचक शम्भुनाथ ने कहा कि हिन्दी में यह पहली परिचर्चा हुई जिसमें महिला पत्रकारों ने सक्रिय भूमिका निभायीं। यह अच्छी शुरुआत है। महिलाएं मानव संसाधन का बड़ा हिस्सा हैं, दुनिया की आधी ताकत हैं। इस ताकत का इस्तेमाल सबसे पहले शिक्षा में हुआ। शिक्षा के बाद स्वास्थ्य में महिलाओं का प्रवेश हुआ और इसके बाद लोकतांत्रिक दबाव में राजनीति में प्रवेश हुआ। लोग समझते थे कि रिमोट की तरह इस्तेमाल करेंगे मगर बाद में स्त्रियों ने रिमोट बनने से इनकार कर दिया। पहले मीडिया में महिला पत्रकार कम मिलती थीं। आज कार्यक्षेत्र बढ़ा है। स्त्री की सबसे कमजोर आवाज मीडिया में है। मीडिया में स्त्री महज एक कथा है, वह ताकत नहीं बनी है। वह जब स्टोरी नहीं पावर के रूप में आएंगी तो एक गुणात्मक परिवर्तन होगा। अभी भी मीडिया पुरुष सत्ता का वर्चस्व है। 99 प्रतिशत सम्पादक पुरुष ही हैं और स्त्रियाँ भी पुरुष मूल्यों को ढो रही हैं। पुरुष समाज उदार हुआ है। विज्ञापन आज भी पुरुष मानसिकता से बने विज्ञापन हैं। अगर महिलाओं की सक्रियता बढ़ी तो स्त्री ताकत जरूर बनेगी।

 डिजिटल ब्रांड्स की निदेशक रितुस्मिता विश्वास ने कहा कि यह अच्छी बात है कि कम से कम सवाल उठाया गया मगर इस मसले को कभी नहीं उठाया और न ही योगदान पर चर्चा होती है। मैं जब छोटी थी, ग्लैमर देखा, खबरों को देखकर रोमांच हुआ और आया। गत 20 साल से देखा। मीडिया महज ग्लैमर और सेलिब्रिटी नहीं है। मीडिया ताकत की बात करती है। मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ, शिक्षा मिली मगर ताकत नहीं था। जीवन में ऐसी घटना हुई जहाँ मुझे लगा कि ताकत जरूरी है और आज 20 साल बाद लगता है कि मैं कुछ योगदान कर रही हूँ। मीडिया में रहते हुए अनकहा सामने लाने की कोशिश करती हूँ। उत्पीड़न को सामने लाने के साथ यह जरूरी है कि अच्छे कामों पर बात की जाए जिससे सभी को प्रेरणा मिले। महिलाओं को उनकी पहचान मिलनी चाहिए। आर जे नीलम ने कहा कि रेडियो मनोरंजन प्रधान है। हम जब प्रार्थना करते हैं तो हमारी नजरों के आगे भगवान पुरुष ही आता है। मीडिया में होना बहुत चुनौतीपूर्ण है। महिलाओं से उम्मीदें अधिक की जाती हैं और वे उन पर खरी भी उतरती हैं। उससे उम्मीद की जाती है कि वह घर में किसी की मदद लें। यूनिस्को के अनुसार 24 प्रतिशत महिलाएं ही ओपिनियन मेकर हैं। टीवी विज्ञापनों में भी महिलाओं से खूबसूरत दिखने की उम्मीद की जाती है। जब तक महिलाएं उत्पाद के तौर पर देखी जाती रहेंगी, स्त्रियाँ एक दूसरे का सहयोग नहीं करतीं तब तक स्थिति नहीं सुधरेगी। महिला पत्रकारों से अधिकारी भी सहयोग नहीं करते। ब्यूटी, लाइफस्टाइल और फैशन यानि पेज 3 की कवरें महिला पत्रकार कवर करेगी, वह राजनीति या अपराध कवर नहीं कर सकती। वह सफल होती है तो उसे टेढ़ी नजरों से देखा जाता है। न्यूज चैनल, अखबारों के मालिक और सम्पादक परिवर्तन लाने के लिए आगे बढ़ सकते हैं, उनको आगे आना होगा। बातें करनी काफी नहीं हैं, स्थिति को सकारात्मक बनाने के लिए काम करना होगा। सलाम दुनिया के सम्पादक सन्तोष सिंह ने कहा कि मैं चीजों को सकारात्मक तरीके से देखने में विश्वास करता हूँ। अगर आप के अन्दर प्रतिभा है तो उसे कोई नहीं रोक सकता। सबको महसूस हो रहा है कि महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं। समस्याओं से आगे निकलकर समाधान खोजना होगा, ऐसी कोई बाधा नहीं है। संरचना बड़ा मसला है। हर जगह पर महिलाएं जिस तेजी से आगे बढ़ रही हैं और स्थिति काफी बेहतर हुई है। 
पत्रकार तथा कवियत्री पापिया पांडे ने कहा कि पहले ही पायदान पर महिलाएं हतोत्साहित की जाती हैं। मानसिक तनाव, एक डर हमेशा रहा मगर इन अनुभवों से काफी कुछ सीखा। साहित्य और मीडिया, सृजनात्मक क्षेत्र हैं, सोचकर लिखना है। अगर मष्तिष्क मुक्त नहीं हो तो वह सोचेगा कैसे और सृजन कैसे करेगा? सुरक्षा बड़ा मसला है। एक मानसिक जंजीर थी जो लिखने नहीं देती थी, बहुत गलतियाँ होती थीं। माहौल वैसा होना चाहिए। शौचालयों की स्थिति बेहद खराब रही है। ऐसे ही माहौल में काम किया, शिकायत की है, उसे जीया है। आर्थिक स्थिति के लिए जरूरी था, काम किया। इन हालात ने मजबूत बनाया है मगर बुनियादी जरूरतें पूरी होनी चाहिए। इन छोटी – छोटी चीजों से सृजन बेहतर हो सकता है। क्यों नहीं प्रतिभाओं को उभरने के मौके क्यों नहीं मिलते? कार्यक्रम के दूसरे सत्र में रंगप्रवाह के चर्चित नाटक अंगिरा का मंचन हुआ। नाटक में कल्पना ठाकुर और जयदेव दास के जबरदस्त अभिनय ने दर्शकों को मोहित कर दिया। कार्यक्रम का संचालन अपराजिता की सम्पादक सुषमा त्रिपाठी ने किया।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जमाना थाली के बैंगन का है

दिल्ली का वह सफर जिसने अपनी सीमाओं को तोड़ना सिखाया

गंगा की लहरें, मायूस चेहरे. विकास की बाट जोहते काकद्वीप से मुलाकात