हिन्दी पत्रकारिता के प्रोफेशनल जादूगर एस पी और खबरों की बेरहम दुनिया

- सुषमा त्रिपाठी

हिन्दी का कोई पत्रकार मीडिया के फलक पर तरह छाए कि चकाचौंध भरे इस समय में उसे भुलाया न जा सके,तो आज के समय में यह एक बड़ा आश्चर्य है,  एक बड़ी घटना है। दूरदर्शन के मेट्रो पर आज तक के प्रस्तोता के रूप में ही सुरेन्द्र प्रताप सिंह को देखा था और मेरी तरह न जाने कितने पत्रकारों का रिश्ता खबरों की दुनिया से जुड़ गया।
तब चैनलों की भीड़ नहीं थीं, दूरदर्एशन सरकार दर्शन अधिक लगता था, एेसे समय में एस पी का नाम और उनकी सच्चाई भरी सादगी पर हमारा भरोसा था और आज यह भरोसा आदर्श में बदल गया है, हालाँकि पुख्ता आदर्श जैसा शब्द अब शब्द जाल ही लगता है।

आज के समय में पत्रकारिता एक व्यवसाय है और ये एस पी ही थे जिन्होंने पहली बार अखबार को उद्योग माना था। वे पत्रकारिता में मिशनरी की बातें नहीं करते मगर ये जरूर मानते हैं कि पेशे के प्रति प्रतिबद्धता होनी जरूरी है। आज वे जीवित होते तो पत्रकारिता को धंधा बनाने की वकालत कभी नहीं करते। आज भी मेरी तरह अधिकतर लोग उनको आज तक के माध्यम से पहचानते हैं मगर सच तो यह है कि सुरेन्द्र प्रताप सिंह की एक अकादमिक और बौद्धिक पृष्ठभूमि थी जिसने उनको संवेदनशील बनाया और यही कारण है कि वे खबरों में मानवीय पक्ष को सामने रखने के हिमायती व पक्षकार बने। यही बौद्धिकता और विषयों पर गहरी पकड़ थी जिसने उनको धर्मयुग के प्रशिक्षु पत्रकार से रविवार के सम्पादक और आजतक जैसी सफलता दी मगर नवभारत टाइम्स को टाइम्स ऑफ इंडिया का हिन्दी संस्करण न बनने देने के लिए उन्होंने जो इस्तीफे का फैसला किया, वह जिद भी इसी संवेदनशीलता और आत्मीयता की देन थी जिससे एस पी चाहकर भी मुक्त नहीं हो सके। सच तो यह है कि मीडिया की चकाचौंध भरा इलेक्ट्रानिक माध्यम उनकी सीमा बना। अगर वे आजतक छोड़ देते तो शायद हमारे समय की पत्रकारिता का स्वरूप ही कुछ और होता। अगर जुड़े रहते और वही उर्जा दे पाते तो आज चैनलों में होने वाला एंकरिंग और टॉक शो के नाम पर होने वाला शोर शायद कम होता, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की परम्परा शायद थम जाती मगर ऐसा नहीं हुआ। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी कहते हैं कि विजुअल मीडिया में खबरों को परोसने की वर्तमान सीमा से एस पी का कैनवस कहीं बड़ा था। इसलिए हर घटना के अनछुए पहलुओं को अगले दिन अखबारों में टटोलना और चाहते या न चाहते हुए भी किसी सम्पादक की तरह उस पर टिप्पणी करना उसकी निजी जरूरत तो थी ही, वह हर सहकर्मी को उसका अहसास भी कराते कि आज तक के मार्फत जो हो रहा है या वे जो कर रहे हैं, वह सम्पूर्ण नहीं है। उनकी अपनी कुलबुलाहट, अपनी बेचैनी भी कभी उस हद तक परवान चढ़ती कि उन्हें समाचार परोसने के विजुअल तरीके पर खीझ भी होती, उपहार अग्निकांड इस खीज का अंतिम सत्य साबित हुआ।‘आप एस पी के चेहरे को गौर से देखिए तो आज तक के दिनों में उनकी बेपरवाही नहीं दिखती, ऐसा लगता है कि कुछ है जिसे वो खोज रहे हैं, कुछ है जिसे शायद उन्होंने खो दिया है।
अगर आप एस पी के जीवन को गौर से देखे तो यह बात और भी पुख्ता रूप में साबित होती है। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे एस पी एक प्रोफेसर हुआ करते थे। यारबाज, मददगार और जिज्ञासु होने के साथ पढ़ाकू भी थे मगर किताबी कीड़ा नहीं थे। गारुलिया जूट मिल हाई स्कूल में पढ़े एस पी के घर में माधुरी, दिनमान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएँ आती थीं। रेस देखने 40 किमी दूर कोलकाता जाते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और एलएलबी और सुरेन्द्रनाथ कॉलेज से एलएलबी की पढ़ाई की, बैरकपुर राष्ट्रीय कॉलेज में व्याख्याता बने। अपने छात्रजीवन में सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ मे रहते हुए काँग्रेस के कद्दावर नेता प्रियरंजन दासमुंशी को उन्होंने हराया था। नक्सली हिंसा देखी। स्पष्टवादी आरम्भ से ही थे। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से जब साक्षात्कार के लिए बुलाया गया तो कह दिया कि इससे बेहतर नौकरी मिली तो वे छोड़ देंगे, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि यहाँ नौकरी नहीं गुलामी करनी होगी। साक्षात्कार धर्मयुग के सख्त और अनुशासनप्रिय सम्पादक धर्मवीर भारती ने लिया था तो पत्रकारिता में पहली बार प्रवेश धर्मयुग में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार ही हुआ मगर इस सख्त वातावरण को उन्होंने दोस्ताना बना दिया। फिर भी काम के प्रति गम्भीरता कम नहीं थी। कुछ दिनों के लिए माधुरी गए जरूर मगर फिर भारती जी ने बुला लिया। उनके सम्पादन में तटस्थता के लिए जगह थी और वे लेखकों को स्वतन्त्रता दिया करते थे। रविवार संजय गाँधी और इन्दिरा गाँधी के अंकों को जलाने के कारण चर्चा का विषय बना। सरकार विरोधी पत्रिका होने के कारण विज्ञापनों से वंचित होना पड़ा। संगीत के जबरदस्त शौकीन थे। 1991 के उत्तरार्ध में एस पी ने नवभारत टाइम्सछोड़ने के बाद 1992 में इंडिया टुडेमें एक कॉलम मतांतरनाम से शुरू किया, जो महत्वपूर्ण है। बाद में आजतककी शुरुआत करने के बाद फिर से उन्होंने इंडिया टुडेके लिए विचारार्थनाम से स्तंभ लिखा जिसका पहला आलेख 31 दिसंबर 1995 के अंक में मेहमान का पन्नानाम के स्तंभ में छपा था। विचारार्थ’ 30 अप्रैल 1996 तक ही चल पाया।

रविवार का महत्व वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय के इन शब्दों से पता चलता है - रविवार और संडे ने ही खोजी पत्रकारिता की नींव डाली। पहली बार हिन्दी में लिखने वाले पत्रकारों की बड़ी रिपोर्टें अँग्रेजी में न केवल छपीं बल्कि उन पर हंगामा भी हुआ।...हवा में तैरती घटनाओं को सूँघना और उन्हें बड़ी रिपोर्ट में तब्दील कर देना एस पी का अद्भुत गुण था। वहीं मनमोहन सरल कहते हैं कि सुरेन्द्र प्रताप सिंह इस विचार को प्रश्रय देते थे कि अखबार की लीड खबर के लिए भी लेखक बाहर से हायर किया जाना चाहिए। सम्पादकीय भी उसी से लिखवाया जाए, जो उस विषय का जानकार हो। यह एस पी की सम्पादकीय उदारता दिखाता है, आज के सम्पादकों के लिए यह उदारता बड़ी बात हो सकती है।
अगर बात मिशन से प्रोफेशन वाली हो तो पहले ही कहा जा चुका है कि एस पी पत्रकारिता को प्रोफेशन के रूप में देखते थे। एस पी ने एक बार कहा था कि हिन्दी पत्रकारिता में साहित्यकार ही मुख्यतः पत्रकार के रूप में सामने आए हैं, लेकिन यह एक तरह से पत्रकारिता का सौभाग्य था तो दुर्भाग्य भी था क्योंकि साहित्यकार लोग पत्रकारिता को हमेशा दूसरे दर्जे का काम मानते रहे और इस प्रकार अहसान की मुद्रा में पत्रकारिता करते रहे जबकि पत्रकारिता अपने आप में एक अलग और स्वतन्त्र विधा है जो कि लोगों से सीधे संवाद करने के लिए काम में लायी जाती है।...आज जो लोग आ रहे हैं, जरूरी नहीं कि अच्छे पत्रकार हों, अच्छे सम्पादक हों मगर कम से कम उनका कमिटमेंट बहुत साफ है। एक अच्छे पत्रकार को कुछ भी पढ़ते रहना चाहिए। विश्वसनीयता का सवाल आज उठ रहा है, हमेशा से उठता रहा है मगर अपने समय से आगे बढ़कर एस पी ने जो कहा, वह आज भी उतना ही बड़ा सच है, जितना पहले हुआ करता था। वे कहते हैं मेरे ख्याल से हमारी सबसे बड़ी चुनौती है – क्रेडिबिलिटी, (विश्वसनीयता)। आज पत्रकारों की क्रेडिबिलिटी बहुत संदिग्ध होती जा रही है। छोटे शहरों में आप जाएँगे तो आप पाएँगे कि अब पत्रकार की इमेज पुलिस वाली होती जा रही है। लोग पत्रकार से डरते हैं। सुबह – सुबह लोग पत्रकारों को देखकर घबराते हैं। तो चिन्ता का विषय है कि कैसे पत्रकार की क्रेडिबिलिटी वापस लायी जाए, कैसे वह पुलिस का पर्यायवाची न बने, कैसे पत्रकार अपनी पत्रकारिता के जरिए सत्ता में पहुँचकर अपना या दूसरों का काम न करवाएँ, कैसे पत्रकारिता खुद को प्रतिष्ठित करने का साधन न बने, कैसे सम्पादक लोग अखबार के जरिए पुरस्कार लेना, विदेश यात्राएँ करना, नौकरियाँ दिलाना, अपने लिए मकान बनाना, आउट ऑफ टर्न  कार अलॉट  कराना आदि न करें। एस पी पर आधारित पुस्तक शिला पर आखिरी अभिलेख लिखने वाले पत्रकार निर्मलेंदु कहते हैं कि एस पी ने बोलचाल और अपनी प्रकृति के अनुरूप हिन्दी का व्यवहार कर अँग्रेजी न जानने वाले हिन्दीभाषी को यह भरोसा दिलाया कि उसकी भाषा कोई गयी – गुजरी भाषा नहीं। एस पी हिन्दी के पहले पत्रकार और सम्पादक थे जिन्होंने अखबार को न केवल एक उद्योग के रूप में देखा, बल्कि पहचाना भी।


 अखबारों की एजेंसियों पर बढ़ती निर्भरता भी उनको नहीं रास आती थी। उन्होंने कहा कि बाकी दुनिया में जो भी अच्छे अखबार हैं, उनमें खबरें केवल होती हैं जो सचमुच खबरें होती हैं, बाकी चीजें या खबरें अखबार अपनी तरह से बनाकर देता है। हमारे यहाँ यह है कि एजेंसी जो तय कर दे, वही खबर बन जाती है। वे आगे कहते हैं कि - मैं यह नहीं कहता कि पत्रकार धार्मिक भावना से अछूता रहे, पर इतना जरूर सोचता हूँ कि पत्रकार को चाहिए कि इस भावना को दबाकर, समेट कर रखे। बस, इसका प्रचार अखबार के माध्यम से न करे। अगर आज का मीडिया ये बात समझ ले तो इस देश में आधी से अधिक हिंसा यूँ ही कम हो जाए। वो कहते हैं कि खबरें देते वक्त मानवीय पक्ष को ध्यान में रखना जरूरी है। सबसे पहले तो हम यह देखते हैं कि जो खबर हम दे रहे हैं, उसके पीछे उद्देश्य क्या है? हम इसे क्यों दे रहे हैं? इससे समाज का कुछ भला होने वाला है या नहीं।
विडम्बना यह रही है कि इतने दिग्गज पत्रकार ने खुद को वह बनाने की कोशिश की जो वो कभी नहीं थे और न हो सकते थे। टीआरपी के लिए जिस तरह की बेशर्म मानसिकता होनी चाहिए थी, वह खुद में नहीं ला सकते थे। वे टीआरपी के लिए अन्धविश्वास को बढ़ावा नहीं दे सकते थे और कुछ नहीं कर पाने की बेचैनी उपहारकांड की खबरों के दौरान उनके चेहरे पर देखी जा सकती थी...वह चेहरा आज भी परेशान करता है। अपनी प्रतिभा, बौद्धिकता, सम्पादकीय विश्लेषण शक्ति और खबरों से खेलने की आदत रखने वाले एस पी ने खुद को एक दायरे में कैद कर लिया था और शायद ऐसा करते समय उनमें घुटन भी रही होगी। उनके सहयोगी रह चुके पत्रकार उदयन शर्मा का कहना है कि आज तक के बाद उसने (एस पी) प्राइवेट पर्सन बनने का अप्राकृतिक प्रयास किया और तनाव के दुष्चक्र ने उसे दबोच लिया। आप एक खिलखिलाते इंसान के सिर पर रातों रात गम्भीरता का बोझा नहीं लाद सकते हैं। एक इमोशनल व्यक्ति को मशीनी पुर्जा नहीं बना सकते हैं। वहीं गोपाल शर्मा कहते हैं कि दिल्ली के माहौल ने उसे हमेशा –हमेशा के लिए चौकन्ना, चाक – चौबंद बना दिया था।...दरअसल चौबीसों घंटे चौकन्ना रहना और शंकाओं में रहना उसकी मृत्यु का कारण बना। शब्दों और खबरों के बाजीगर को कैद नहीं होना था, शायद उड़ान भर दी होती तो उनके साथ हिन्दी पत्रकारिता की उड़ान भी और ऊँची होती मगर उनको समझकर हम आगे की राह पर चल तो सकते ही हैं।


सन्दर्भ - शिला पर आख़िरी अभिलेख, सम्पादक - निर्मलेंदु)

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