नीतिश ने वही किया जो ऐसी स्थिति में हम और आप करते


नीतिश को शायद अंदाजा है कि उनकी राह इतनी आसान नहीं हैै

टॉपर और रिजल्ट घोटाले के बाद बिहार इन दिनों फिर से चर्चा में है। चर्चा में तो पहले से ही था मगर वहाँ के अत्प्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम ने जो मोड़ लिया है, उसने बिहार की राजनीति को राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियों में लाकर खड़ा कर दिया। सुशासन बाबू धोखेबाज बन गए और लालू के साथ बेवफाई पर चुटकुले गढ़े जाने लगे, वो लोग उंगली उठाने लगे जो अपनी अवसरवादिता के लिए बदनाम हैं। वो लोग तंज कसने लगे जिन्होंने खुद गठबंधन की राजनीति को धता बताकर मनमाने फैसले लिए। बिहार की राजनीति शोध करने के लायक विषय बन गयी है। आप सिर्फ कल्पना कीजिए लालू और उनके परिवार, खासकर बेटों के हाव भाव और बॉडी लैंग्वेज पर....और फिर बताइए कि जो व्यक्ति राज्य की कमान 5 बार सम्भाल चुका हो, जिसके नेतृत्व में राज्य की दशा सुधरी हो, वह उसे क्यों बर्दाश्त करेगा? लालू के परिवार में शिष्टाचार नहीं है, तमीज भी नहीं है और जिस तरीके से आधी रात को पैदल मार्च करके तेजस्वी और तेजप्रताप राजभवन निकल पड़े, उसे देखकर यही स्पष्ट हो रहा था कि बिहार की सत्ता उनके लिए पैतृक सम्पत्ति बन चुकी है और नीतिश कुमार दिखावे के लिए सरकार का चेहरा भर हैं। नीतिश को कोसने वाले क्या भ्रष्टाचार के आरोपों को साम्प्रदायिकता की आड़ में छुपा सकते हैं? क्या यह सच नहीं है कि राजद का उत्पात राज्य में हिंसक घटनाओं को बढ़ा रहा था और उससे एक कदम आगे बढ़कर जेल में बंद शहाबुद्दीन के साथ लालू की बातचीत पर आप क्या सफाई देंगे? तय कीजिए कि गठबंधन महत्वपूर्ण है या राज्य।
लालू और उनके परिवार के लिए सत्ता सजा से बचने का एकमात्र माध्यम है

 गठबंधन के नाम पर नीतिश को किसी एक परिवार की जमीन्दारी क्यों सहनी चाहिए। 2015 में जब सरकार बनी थी, तभी अंदेशा हो गया था कि यह कुनबा बहुत जल्दी बिखरेगा और वही हुआ। लालू और तेजस्वी ही क्यों, मीसा और राबड़ी भी कठघरे में है। चलिए, एक बार नीतिश कुमार की जगह खुद को रखकर देखिए और इसे मैं प्रोफेशनल अंदाज में समझाती हूँ। आप बड़ी उम्मीदों के साथ एक कम्पनी छोड़कर दूसरी कम्पनी में बेहतर भविष्य की उम्मीद में जाते हैं और वहाँ जाकर आपको एहसास होता है कि वो जो दिख रहा था, वह तो है ही नहीं, आप पर लोग हावी होने की कोशिश करते हैं, आपके फैसलों को दबा दिया जाता है और आपकी साख मिट्टी में मिलने के कगार पर है। आप क्या करेंगे? समझौते और वफादारी के नाम पर अपना भविष्य कुर्बान करेंगे, अन्याय होता देखेंगे, अपने लक्ष्य को धूमिल होता देखेंगे या फिर बेहतर विकल्प की तलाश करेंगे और वह न मिले तो पुरानी राह पर लौट पड़ेगे? नीतिश ने तीसरा रास्ता अपनाया और मुझे नहीं लगता कि इसमें कुछ भी गलत है। लालू ने अपने बेटों को कभी नहीं रोका और सच तो यह है कि सत्ता उनके लिए खुद को बचाने का माध्यम बन गयी है। पाप करो और राजनीति की आड़ में गंगा नहा लो। लालू और नीतिश की राजनीति और व्यक्तित्व में जमीन आसमान का फर्क है, आप कहिए उनको अवसरवादी मगर आप एनडीए का शासनकाल याद करेंगे तो इस फैसले का कारण जान जाएँगे। जो लोग नीतिश के जनादेश दोबारा लेने की बात कर रहे हैं, वे शायद उस आर्थिक बोझ के बारे में नहीं सोच रहे हैं जो इस चुनाव से देश को ही उठाना होगा। 3 साल के लिए मध्यावधि चुनाव का कोई मतलब तो नजर नहीं आता, कम से कम जनता के हित में है, ऐसा मैं नहीं मानती।
नीतिश के हाव - भाव में ही उनका आक्रोश दिख रहा है जिसे महागठबंधन पहचान नहीं सका

 राजनीति तो अवसरवाद का दूसरा नाम है, फिर नीतिश कुमार से आपको इतनी उम्मीदें और शिकायत क्यों हैं? काँग्रेस अपने गिरेबान में झाँककर देखे और बताए कि बंगाल के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा के साथ हाथ मिलाकर उसने कौन सा गठबंधन धर्म निभाया था जबकि राज्य में दोनों ही पार्टियों के समर्थक कभी एक साथ कायदे से साथ नहीं आते। बुद्धदेव और राहुल गाँधी का साथ मंच पर आना राजनीतिक मजबूरी नहीं थी तो क्या थी? 2011 का चुनाव तृणमूल के साथ लड़ने वाली काँग्रेस ने क्या 2016 में रास्ते अलग नहीं किए? तब आपकी विचारधारा कहाँ घास चरने गयी, आपातकाल से लोकतंत्र को कुचलने वाली पार्टी जब लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करती है तो बस हँसी ही आ सकती है। बंगाल में तो यह हालत थी कि हँसिए के बीच हाथ को पहचानना मुश्किल हो गया था और उत्तर प्रदेश में चुनाव के ठीक पहले 2 लड़कों ने जो गठबंधन बनाया, वह क्या अवसरवाद नहीं है? यह सही है कि बिहार का राजनीतिक घटनाक्रम सुनियोजित था, जल्दबाजी भी की गयी मगर फंदे से निकला आदमी धर्म बाद में खोजता है, साँसे पहले बचाता है, नीतिश के लिए यह मामला कुछ ऐसा ही था। राहुल गाँधी जब 3 -4 माह से सब कुछ देख रहे थे, लालू को पता था कि मैच फिक्स है, तो उनको किस बात का इंतजार था। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे नीतिश को अपदस्थ करके अपने बेटे को सिंहासन सौंपना चाहते हों और नीतिश को भनक लग गयी, इसके बाद जो हुआ वो इतिहास ही है।
तेेजस्वी के आचरण में मुख्यमंत्री के प्रति सम्मान नहीं दिखता, जो अगर तेेजस्वी देते, तो नीतिश उनके अच्छे मार्गदर्शक बन सकते थे

 राज्य में काँग्रेस की लानत मलानत करने वाली ममता आज प्रदीप भट्टाचार्य को समर्थन दे रही हैं तो यह भी अवसरवाद ही है। आप गठबंधन धर्म की आड़ में अपने अपराध नहीं छिपा सकते। ये तय बात है कि केन्द्र और राज्य में सरकार के बीच तालमेल होगा तो राज्य को लाभ होगा। बंगाल और केन्द्र के बीच तालमेल नहीं है तो इसका खामियाजा भी बंगाल ही भुगत रहा है, केन्द्र की बहुत सी योजनाएँ हैं जो राज्य मे लागू ही नहीं की गयीं। अब हो सकता है कि राज्य को विशेष न सही, केंद्र से बड़ा पैकेज जरूर मिल जाए। इससे राज्य की बेपटरी हो रही व्यवस्था को संयोजित करने में उन्हें मदद मिलेगी। फिर नीतीश और भाजपा का वोटबैंक मिलकर अपना पुराना रसायन तैयार करेगा जिससे आपराधिक तत्व हताश होंगे। नीतीश को कैबिनेट की बैठकों में अब पहले जैसा तनाव नहीं ङोलना पड़ेगा। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व मगध के अपने इस नए क्षत्रप को सहयोग करता रहेगा। इसका असर ओडिशा में अगले साल होने जा रहे चुनावों में पड़े बिना नहीं रहेगा। जिस पार्टी को जब भी मौका मिला है, उसने हमेशा पैर पसारे हैं, आप भाजपा से यह उम्मीद नहीं रख सकते कि वह मौके का फायदा नहीं उठाए। लागू के साथ महागठबंधन 2013 में बना मगर एनडीए से नीतिश का रिश्ता 16 साल पुराना है। नीतीश कुमार की शख्सियत में कुछ कमियां जरूर हैं, लेकिन उनकी एक खासियत भी। वे अपनी छवि और भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से समझौता नहीं कर सकते। अपने पुराने भाई को यहीं समझने में लालू यादव भूल कर गए।
लालू जी के हाव-भाव से अगर इस वरिष्ठ नेता के प्रति जरा सा भी सम्मान दिखता हो तो बता देें, लालू यहीं चूके हैं


अगर उन्होंने अपने बेटे से सफाई दिलवा दी होती, अगर उन्होंने अड़ियल रुख नहीं अपनाया होता तो शायद उन्हें एक बार फिर विपक्ष की कुर्सी पर बैठना नहीं पड़ता। धर्मनिरपेक्षता के फॉर्मूले से भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अपराध को आप नहीं छुपा सकते। जिस बिहार को राष्ट्रीय स्तर तो छोड़ दीजिए, विदेशी धरती पर भी मजाक और दया का पात्र माना जाता था, उस बिहार की कमान 2005 में संभालते ही नीतीश कुमार ने तेजी से काम किया। जिस बिहार में सांझ ढलते ही लोग घरों से बाहर निकलने से कतराने लगे थे, उस बिहार में हालात तेजी से बदले। भ्रष्टाचारी जेल भेजे जाने लगे, दुदार्ंत समङो जाने वाले शहाबुद्दीन जैसे आपराधिक राजनीति के खिलाड़ियों की असली जगह जेल नजर आने लगी। 
भविष्य के बारे में नहीं कहा जा सकता मगर फिलहाल लगता है कि नीतिश को विकल्प मिल गया है

 महागठबंधन ने अपना चुनाव नीतिश के नाम पर लड़ा था और नीतिश एकमात्र फैक्टर थे कि ये सरकार बन सकी। जिसके नाम पर आप चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करते हैं, उसे हाशिए पर डालना क्या अवसरवाद नहीं है
? 2010 में जेडीयू के 123 विधायक जीते थे मगर 2015 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर 71 हो गयी तो इसकी वजह यही थी कि नीतिश ने गठबंधन गलत चुन लिया था और इसका फायदा राजद को मिला। तो नीतीश कुमार का मौजूदा कदम गैरकांग्रेसवाद के डॉक्टर लोहिया के सिद्धांत का ही विस्तार है। माना तो यह जा सकता है कि उन्होंने चार साल पहले जो भूल की, उसका उन्हें जल्दी ही अहसास हो गया और उन्होंने अपनी गलती सुधार ली है। संख्या बल दिखाकर ब्लैकमेलिंग करना और समानान्तर शासन करना लोकतंत्र नहीं है। 
ये तनावमुक्त होकर हँसना ही सब राज बयां कर रहा है

आज की राजनीति में नीति खोजना ही एक हास्यकर स्थिति है मगर यह लड़ाई नीतिश को अपनी खोयी हुई जमीन पाने के लिए लड़नी है। लालू अदालत जा रहे हैं, अब इसका नतीजा कुछ भी हो मगर नीतिश ने अपनी पुरानी दोस्ती वापस पाकर समय के साथ चलना तो शुरू कर दिया है। अब इंतजार इस बात का है कि बिहार का विकास भी समय के साथ हो और उसे सुशासन ही मिले।

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