भारतीय राजनीति के मुहावरे...खत्म होती गहराई और दम तोड़ता शिष्टाचार
सुषमा त्रिपाठी
नेताजी ने कहा था....तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी
दूँगा। मोहनदास करमचंद गाँधी को देश ने महात्मा कहा और फिर बापू और इसके बाद कहते
हैं कि घोर विरोधी होने के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने
इंदिरा गाँधी को दुर्गा कहा। महात्मा गाँधी से मतभेद होने पर भी सुभाष चन्द्र बोस
ने सौजन्यता बरकरार रखी। यहाँ तक कि व्यंग्य और कटाक्ष का शिकार होने पर भी आपसी
व्यवहार पर इसका फर्क नहीं पड़ा। भारतीय राजनीति में मुहावरों का इस्तेमाल हमेशा से
होता रहा है और साहित्य ने हमेशा राजनीति को नये - नये शब्द दिये हैं जिसका लाभ
राजनेताओें को मिला है मगर वक्त बदल गया है तो अब मुहावरे भी बदल रहे हैं। हम इन
बदलते मुहावरों की बात ही कर रहे हैं। बीबीसी हिन्दी की एक खबर के बारे पढ़ते हुए
पता चला कि इंदिरा गाँधी अपना भाषण तैयार करती थीं, लेकिन उनके सूचना सलाहकार एचवाई शारदा
प्रसाद उसे फाइन ट्यून कर देते थे। फिर अलग-अलग विभागों द्वारा अपने-अपने पॉइंट्स
भेजने का चलन शुरू हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आरक्षण नीति की घोषणा स्वतंत्रता
दिवस के भाषण से की। धीरे-धीरे सरकारी नीतियों की घोषणाएँ इन भाषणों से होने लगीं
और आज लगभग हर नेता के भाषणों में गहराई और मुद्दे लगातार गायब होते जा रहे हैं और
तंज और आपसी छीछालेदर भर रह गये हैं। कभी सोनिया प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार
नरेन्द्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’
कहती हैं तो कभी मोदी शशि थरूर की
पत्नी सुनंदा पुष्कर को ‘50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ कह देते हैं। खैर, आप यह कह सकते हैं
कि ये बातें पुरानी हो चुकी हैं मगर सच तो यही है कि आज के नेताओं के भाषणों का
स्तर गिरता चला जा रहा है। विपक्ष के नेता के लिए ‘शहजादा’ और ‘रईस’ शब्द का इस्तेमाल भारतीय राजनीति के
इतिहास को कौन सी दिशा में ले जायेगा...यह तय करना तो इतिहासकारों के लिए भी बहुत
मुश्किल होगा। इसी प्रकार जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स और सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर
सैनिकों के खून की दलाली जैसे मुहावरे सौजन्य की कौन सी पारिभाषिक शब्दावली जोड़
रहे हैं, ये शायद राहुल गाँधी को पता नहीं होगा। मुहावरों का स्तर यह है कि
अब हमला बोलने के लिए ‘सूट - बूट की सरकार’ और ‘जैकेट’ का सहारा लिया जाने लगा है। अटल
बिहारी वाजपेयी और नेहरू के आपसी सौजन्य के दो उदाहरण हम आपको दे रहे हैं। पूर्व
लोकसभा अध्यक्ष अनंतशायनम अयंगर ने एक बार कहा था कि लोकसभा में अंग्रेज़ी में
हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है। जब
वाजपेयी के एक नज़दीकी दोस्त अप्पा घटाटे ने उन्हें यह बात बताई तो वाजपेयी ने ज़ोर
का ठहाका लगाया और बोले, ‘तो फिर बोलने क्यों नहीं देता?’ हालांकि, उस ज़माने में
वाजपेयी बैक बेंचर हुआ करते थे लेकिन नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी द्वारा उठाए गए
मुद्दों को सुना करते थे। किंशुक नाग अपनी किताब ’अटलबिहारी वाजपेयी- ए मैन फ़ॉर ऑल सीज़न’ में लिखते हैं कि
एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते
हुए कहा था, इनसे मिलिए। ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं। हमेशा मेरी
आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूँ।
वाजपेयी के
मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज़्ज़त थी। 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप
में अपना कार्यभार सँभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि
दीवार पर लगा नेहरू का एक चित्र ग़ायब है। किंशुक नाग बताते हैं कि उन्होंने तुरंत
अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था। उनके अधिकारियों
ने ये सोचकर उस चित्र को वहाँ से हटवा दिया था कि इसे देखकर शायद वाजपेयी ख़ुश नहीं
होंगे। वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए
जहाँ वह पहले लगा हुआ था। कहने को तो राहुल गाँधी भी कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी
उनके भी प्रधानमंत्री हैं पर सच तो यह है कि क्या आज के इस वातावरण में इस तरह के
सौहार्द की कल्पना हम कर सकते हैं? काँग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के
चायवाला सम्बोधन ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवा दिया तो नीच संबोधन ने
गुजरात काँग्रेस से छीन लिया और अब उनका पाकिस्तान प्रेम काँग्रेस का सिरदर्द बना
है। खासकर जम्मू -कश्मीर में महबूबा मुफ्ती और फारुक अब्दुल्ला जैसे नेता तो एक
बार भी नहीं सोचते कि उनके बोल किस तरह देश के रक्षकों का मनोबल तोड़ रहे हैं।
गुजरात के चुनाव में तो गदहों का भी जिक्र चल गया था मगर देश के शीर्ष पदों पर
बैठे नेताओं से थोड़े शिष्टाचार और थोड़ी गरिमा की उम्मीद की जा सकती है मगर आज कोई
भी नेता ऐसा नहीं है जो इस पर खरा उतर रहा हो। हाल ही में रेणुका चौधरी जिस तरह से
संसद में असमय हँसी थीं, वह अशोभनीय था,
उसी प्रकार उस हँसी में रामायणकालीन
हँसी खोज लेना भी प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुरूप नहीं है। इस लिस्ट में पक्ष -
विपक्ष के कई धुरंधर नेताओं के नाम हैं जिनमें साक्षी महाराज से लेकर ओवैसी तक के
नाम शामिल हैं मगर हमारा मुद्दा यह है कि क्या वजह है कि नेताओं के भाषण की गहराई
खत्म होती जा रही है और उससे भी दुःखद है कि वे इस बारे में सोचने की जहमत तक नहीं
उठाते।
आज के नेताओं का भाषण मुद्दों की जगह तंज से शुरू होता है और एक दूसरे को
गालियाँ देने पर खत्म होता है और कई बार स्थिति बद से बदतर हो जाती है और ये सब
चुनाव को ध्यान में रखकर हो रहा है। बहरहाल, जब लोकसभा चुनाव आ रहा है तो भारतीय
राजनीति के नये मुहावरे और शब्दावलियाँ और भी खतरनाक रूप लेंगी, इसमें सन्देह नहीं
मगर सभी नेताओं को याद रखना चाहिए कि ये मुहावरे ही उनका इतिहास बनेंगे और उनकी
छवि भी गढ़ेंगे....इसलिए जरूरी है कि इस बारे में पल भर को ही सही विचार
करें....वरना इतिहास को नाम धूमिल करते देर नहीं लगती और तैयारी के साथ ‘मसलों को उठाने
वाले नेताओं का सूखा’ भारतीय राजनीति को सालता रहेगा।
(सलाम दुनिया में प्रकाशित आलेख)
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