इस गुनाह में आप बराबर के साझीदार हैं



सबसे आसान है अखबारों..पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को घेरना..विज्ञापनों की भरमार के लिए उनको कोसना...उनके कार्टून बनाना...और उन पर यदा - कदा कविताएं और व्हाट्स ऐप स्टेटस बनाना। कहने का मतलब यह है कि मीडिया को घेरना सरकारों की आदत तो है ही मगर उसकी अदालत जनता में सबसे ज्यादा लगती है। तो अब लगा कि जनता की अदालत में पेशी होती ही रहती है तो अपना पक्ष भी रखा जाये...मगर पत्रकार अपने लिए न के बराबर बोलते हैं। चैनलों पर और अखबारों के चेहरे पर आपको उनके मालिक और सम्पादक...एंकर या संवाददाता दिखते हैं...वह नहीं दिखते जो नेपथ्य में होते हैं...जो कभी कैमरामैन..तो कभी वीडियो एडीटर तो कभी पेजमेकर होते हैं...वह भी नहीं दिखते जो मशीनों के बीच काम कर रहे होते हैं...जिनकी अपनी जिंदगी बेरंग होती है मगर आपकी जिंदगी में रंग भरना उनकी जिम्मेदारी होती है। कोई सेवानिवृत पत्रकार या कोई बेरोजगार मीडियाकर्मी जब भूखों मर रहा होता है...वह किसी अखबार के पन्ने पर नहीं छपता...वह किसी विमर्श का भी हिस्सा नहीं होता। कोई महिला पत्रकार जब भीड़ में गुंडों से जूझ रही होती है या कभी उसके दफ्तर में उसका उत्पीड़न होता है...डेडलाइन और घर के बीच जब वह परेशान होती है....आप नहीं देख पाते और न ही उसकी आवाज सुनी जाती है क्योंकि अधिकारों की बात करने वाले अखबारों में विशाखा गाइडलाइन का लाभ महिलाओं को मिले...इसके लिए तो कोई कमेटी ही नहीं है...अलबत्ता उसे ब़ॉस को फँसाने का आरोप लगाकर नौकरी से जरूर निकाल दिया जाता है या वह उत्पीड़न से परेशान होकर खुद ही अपनी मानसिक शांति के लिए नौकरी छोड़ने को बाध्य होती है। उसके लिए कोई रैली नहीं निकाली जाती और न ही कोई भूख हड़ताल होती है। रात के 9 बजे जब उसे अपने बच्चों का ख्याल आता है तो वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। मीडियाकर्मियों के बच्चे तो कभी माँ तो कभी पिता के साथ ही बड़े होते हैं..कई महिलाएँ बच्चों के लिए ही डेस्क पर आती हैं। महिला पत्रकारों को खबरें आसानी से मिलती हैं या नेता व अधिकारी इनकी शक्लें देखकर एक्सक्लूसिव देते हैं (आम धारणा यही है) या फिर उनको अधिकतर पेज थ्री की जिम्मेदारी भी दी जाती है..सभा संस्थाओं की जिम्मेदारी दी जाती है...इससे आगे बढ़ीं तो शिक्षा...निगम और अब अपराध और राजनीति जैसी बीट भी उनके हिस्से आ रही है...और ये करना आसान नहीं होता। कई बार एक साथ 40 - 50 कर्मचारी किसी मीडिया संस्थान से निकाल दिये जाते हैं...उनको जबरन वीआरएस दिया जाता है मगर वह किसी अखबार के पहले पन्ने पर नहीं दिखता...प्रतिद्वंद्वी भी इस मामले में साझेदारी का ख्याल रखते हैं।
हम मीडियाकर्मी जनता के सवालों को लेकर जूझते रहते हैं क्या जनता कभी हमारे लिए सोचती है? पत्रकारों की हत्याएँ होती रही हैं...पत्रकार पीटे जाते रहे.....कितने संगठन सड़क पर उतरे...बता दीजिए? ये जो गुणवत्ता का ढिंढोरा हर सेमिनार में पीटा जाता है....वो ढिंढोरा पीटने वाले लोग भी टीआरपी के पीछे भागते हैं...उनको अपने उन कार्यक्रमों में भी मंत्री चाहिए जहाँ उनकी जरूरत नहीं है...क्योकि मीडिया तो मंत्री के पीछे आता है न। मंचों पर पार्टियों को गरियाने वालों को पार्षदों के आगे - पीछे हाथ बाँधकर घूमते देखा है....और ऐसे लोग हम मीडियावालों से नैतिकता की उम्मीद करते हैं...? जरा अपने गिरेबान में झाँकिए साहेब। हम पर आरोप लगते हैं कि हम बाजार के पीछे भागते हैं मगर क्या आप नहीं भागते...क्या आपने समाचारों से अधिक विज्ञापन देने वाले अखबारों का बहिष्कार किया है? सबसे अधिक नग्न तस्वीरों से भरने वाले अखबार और सनसनी फैलाने वाले अखबार आपकी नजर में सबसे आगे हैं और आप वहीं जाते भी हैं...वही खरीदते भी हैं और बिकाऊ छोटे मीडिया संस्थान हैं। 15 साल हो रहे हैं और मैंने किसी भी संस्था को नहीं देखा जिनको मंत्री और राज्यपालों का मोह न हो...जो विज्ञापन देने के लिए प्रसार संख्या न देखे...। यहाँ तक कि साहित्यकार....प्रोफेसर और बुद्धिजीवी भी अपनी कविताओं को सबसे छपवाने के लिए गुणवत्ता और विश्वसनीयता को नहीं प्रसार संख्या को ही मापदंड बनाते हैं। वह सारे अखबारों में अपनी खबर भेजते हैं मगर जब उनके कार्यक्रम होते हैं तो छोटे - मोटे अखबार अपनी तमाम आदर्शवादिता के बावजूद उनकी सूची में नहीं होते और न ही उनको खरीदा जाता है जबकि इन अखबारों में समाचार विज्ञापन से अधिक होते हैं..लेख भी स्तरीय होते हैं...मगर बहुत से लोग जब फोन करते हैं तो उनका अंतिम प्रश्न यही होता है कि वह पत्रकार अधिक प्रसार संख्या वाले अखबार या मीडिया में किसी का सम्पर्क दे सकता है? खबर छपे भी तो फुटेज और कटिंग आप उसी अधिक प्रसार संख्या वाले अखबार की ही साझा करते हैं...जरा सोचिए क्या आप पूर्वाग्रह से मुक्त हैं?
 नतीजा यह होता है कि प्रसार संख्या कम होते जाने के कारण या तो उनको समझौते करने पड़ते हैं...या फिर न चाहते हुए भी उसी होड़ में शामिल होना पड़ रहा है तो क्या आप इस गुनाह में बराबर के साझीदार नहीं है? जो बुरा है, उसे प्रश्रय कौन दे रहा है...कभी अन्दर झाँककर देखिए...जो खुद बेईमानों की पूजा करें...उनको नैतिकता का ज्ञान देने का कोई अधिकार नहीं है...आप जनता जनार्दन हैं या सरकार हैं...मगर ये अधिकार आपको नहीं है। सनसनीखेज खबरें करने वालों को आप अव्वल बनाते हैं....अंगप्रदर्शन करने वालों की तस्वीरों से पटी सामग्री वाले अखबार आप खरीदते भी हैं और देखते भी हैं...उनकी हिम्मत बढ़ाने वाले आप ही हैं...तो ऐसे में मीडिया जब व्यावसायिक हो रहा है तो आपको शिकायत क्यों है?
नवजागरण काल में भी जनता के असहयोग के कारण ही उदन्त मार्तंड जैसा अखबार भी साल भर में बंद हो गया...जनता ने अच्छी गुणवत्ता वाले अखबारों का साथ तब ही दिया है जब सामग्री उनके अनुकूल हो। आज जब आपका टेस्ट ही अच्छा नहीं है तो मीडिया अकेले क्या करेगा...आप जब खुद बुराई को प्रश्रय देंगे तो कौन सा पत्रकार आपके लिए लड़ेगा और क्यों लड़ेगा? आप फेक न्यूज से परेशान हैं मगर उनको बगैर देखे वायरल करने वाले तो आप ही हैं...अगर आपको किसी शहीद की जगह आँख मारने वाले लड़की में दिलचस्पी है तो मीडिया भी वही दिखाएगा क्योंकि आखिरकार उसे आपको ही खुश करना है तभी तो वह टिकेगा। जब आपने ही बेईमानी...सत्ता और अहंकार के आगे घुटने टेक दिये हों तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा आपकी मदद कैसे करेगा इसलिए जब भी मीडिया को कोसिए....तो याद रखिए....दूसरी उंगली आप पर भी उठेगी। इस गुनाह में आप भी बराबर के साझीदार हैं।

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