ठहरे हुए पानी में कंकड़ तो पड़ गया, लहरें उठती भी रहनी चाहिए


गुजरे हुए तीन दिन कोलकाता की हिन्दी पत्रकारिता के तालाब में कंकड़ डाल गये। कोलकाता प्रेस क्लब और हिन्दी...अब तक यह रिश्ता कभी समझ ही नहीं आता था। हिन्दी के पत्रकार एक साथ और वह भी तीन दिन...ये भी इस शहर के लिए आश्चर्य वाली बात थी। कटु सत्य तो यह है कि प्रेस क्लब के चुनावों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के पत्रकार अब तक एक साथ बगैर किसी भेदभाव के साथ आये हों...ऐसा दिन गत 15 साल की पत्रकारिता में मेरे सामने तो नहीं आया और आया भी हो तो वह सिर्फ मान्यता प्राप्त अधिकारी पत्रकारों के लिए था मगर ये तीन दिन ऐसे नहीं थे। कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष स्नेहाशीष दा को साधुवाद कि वे प्रेस क्लब की वर्तमान संस्कृति से उतने ही परेशान हैं जितने कि हम आम पत्रकार। इससे भी बढ़कर उनका यह सोचना कि अब तक हिन्दी पत्रकारों को कौशल प्रशिक्षण नहीं मिला और कोलकाता प्रेस क्लब की ओर से उन्होंने यह अवसर उपलब्ध करवाया, यह मेरी नजर में कोलकाता की हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक क्रांति हैं। एक ऐसी जगह और एक ऐसा अवसर हम सभी नये और पुराने पत्रकारों को मिला जिसके लिए न जाने हम कब से तरस रहे थे। दूसरे शहरों के पत्रकारों से जब दिल्ली में मिली तो यह कमी अन्दर तक कचोटती रही है। पता नहीं क्यों, हम साथ काम करने वाले एक दूसरे को प्रतिभागी और सहयोगी नहीं बल्कि प्रतिद्वन्द्वी मानते रहे हैं। अपने - अपने संस्थानों के प्रति ईमानदारी रखते हुए भी हम साथ चल सकते हैं, पता नहीं क्यों, हम समझ नहीं पाये। या यूँ कहें कि हमें विरासत में एक वातावरण ही दिया गया जिसने हमें अनचाही शत्रुता थमा दी..हम ये तो नहीं चाहते थे।  अब जब बात चल रही है तो कहना पड़ेगा क्योंकि एक जगह से काम छोड़ने के बाद किसी और हाउस में चले जाना और कुछ वक्त बिताना मेरे लिए आदत थी मगर मेरे पूर्व संस्थान के लिए यह देश द्रोह से कम बड़ा अपराध नहीं था। हमें दूसरे संस्थानों के पत्रकारों से बात करने के बारे में भी सोचना पड़ता था। ये सब भड़ास तो नहीं है बल्कि वह पृष्ठभूमि है जिस पर बात किये बगैर इतिहास के पन्ने नहीं खुलेंगे क्योंकि जो हमारा आज है, वही तो हमारा इतिहास बनेगा।
मुझे याद है कि प्रभात खबर के गोपाल भइया मुझे बुलाते ही रह गये थे और मैं भय से या आने वाले तूफान की आशंका से उनकी बात नहीं मान सकी। कम से कम सलाम दुनिया में हमें यह दिक्कत नहीं है और इसका श्रेय एक खुले दिमाग के सम्पादक को जाता है। तीन दिवसीय पत्रकारिता कार्यशाला में जब तीसरे दिन जगदीश उपासने सर बात कर बता रहे थे कि पत्रकारों में शिष्टाचार और अनुभवी पत्रकारों के प्रति आदर होना चाहिए तो मैं नहीं कह सकती मेरे मन में कैसै भाव आ रहे थे क्योंकि यहाँ के सबसे बड़े प्रिंट मीडिया संस्थान में तो एक ही बात सिखायी जाती है कि जवाब देकर आओ। संवाददाता से बड़ा कोई नहीं होता और किसी भी विभाग से बात करने पर आपकी मुश्किलें बढ़ सकती थीं। भय से कई नये पत्रकार आज भी इसी बात का पालन करना सीख रहे हैं। उपासने सर, क्या आप हमारी पीड़ा समझ सकेंगे? क्या आप ये समझ सकेंगे कि नये पत्रकारों का आत्मविश्वास बढ़ाने के नाम पर उनको माध्यम बनाकर अनुभवी पत्रकारों का अपमान करवाने वाले सम्पादक भी इसी शहर में हैं। कैसा लगता है कि अनुभव ही हमारे लिए विष बना दिया जाता है और आपको पुराना कहकर इतना प्रताड़ित किया जाता है कि आप उस जगह को छोड़ने पर विवश होते हैं, जो आपकी आत्मा हुआ करता था...वफादारी का यह पुरस्कार यहीं मिलता है।

इस गलाकाट प्रतियोगिता में असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर पत्रकारों में फूट डलवाने वाले अधिकारी पत्रकार भी उसी मिट्टी पर काम कर रहे हैं जिस पर जुगलकिशोर सुकुल ने हिन्दी पत्रकारिता की नींव उदन्त मार्तंड के रूप में  डाली थी।
कहाँ हैं प्रोत्साहित करने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे सम्पादक जिन्होंने हिन्दी को मैथिलीशरण गुप्त जैसा राष्ट्रकवि दिया? ये हमारा सौभाग्य ही है या सुकुल जी का हम सब पर आशीर्वाद कि उनके वंशधर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय की रीवां परिसर के प्रभारी जयराम शुक्ल सर लगातार तीन दिन तक हमारे बीच रहे। सर कहते हैं कि पत्रकार में सच्चाई बनी रहे...कैसे रहे सर, जब सच लिखने वाले पत्रकारों को कठघरे में खड़ा कर उनकी खबरों से खिलवाड़ करने वाले लोग भी इस क्षेत्र में हैं। ये शहर तो सुकुल जी की कर्मभूमि तक नहीं सम्भाल सका मगर हमारा प्रयास रहेगा कि वह जगह हम फिर तलाशकर उसी प्रतिष्ठा के साथ उस इतिहास की प्राण प्रतिष्ठा करें। हम आपसे क्या कहें...हमारे मन में सुकुल जी प्रतिष्ठित हैं पर हम जानते हैं कि इतना काफी नहीं। उस गली को खोजने की बहुत कोशिश की मगर लगता है कि अभी यह कोशिश जारी रहनी चाहिए।
ये तीन दिन हम सबके लिए ऑक्सीजन थे जब हम सबने पहचाना। आप सब कहते हैं कि खबर में सूचना से आगे की बात रहनी चाहिए मगर यहाँ के अखबारों के पास भाव या आगे देखने की फुरसत ही कहाँ हैं? एक साथ हम आये तो सही मगर कुछ करने के लिए तो जरूरी है न कि हम एक दूसरे को साथी समझें, शत्रु नहीं..आपने ठहरे हुए पानी में कंकड़ तो डाल दिया...मगर हलचल होती रहे...इसका ख्याल तो हम पत्रकारों को ही रखना होगा।

(एक आहत पत्रकार की कलम से)

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