दैवीय भाव से मुंशी जी को देख रहे हैं तो अन्य साहित्यकारों से अन्याय कर रहे हैं आप



मुंशी प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य के प्राण पुरुष माने जाते हैं और जब उनको लेकर कुछ भी लिखा जाता है तो एक भक्ति भाव उस लेखन में समाहित होता है। हम सकारात्मक बातों को खींच - खींचकर लिखते हैं मगर उनके विरोध में जाने वाली हर बात को नजरअन्दाज करते हैं जिसके कारण उस अलौकिक छवि को आघात पहुँचे या फिर उन स्थापित मान्यताओं को चोट पहुँचे जिसका पालन हम करते आ रहे हैं। जहाँ तक मेरी समझ है, वह यही कहती है कि इस तरीके से आप चारण काव्य लिख सकते हैं मगर उसे इतिहास या आलोचना नहीं कहा जा सकता। जिन लेखकों और नायकों को हमने भगवान बना लिया है, हम उनकी खामियों को लगातार नजरअन्दाज करते हैं और उन्हीं खामियों को जब दूसरे लेखकों में या दूसरे नायकों में देखते हैं तो बाल की खाल निकालकर उनको दोयम दर्जे का ठहरा देते हैं। यह निष्पक्षता तो नहीं है अपितु अन्याय जरूर है और एक बड़ा कारण है कि आज हिन्दी, बांग्ला और अँग्रेजी साहित्य विकल्पहीनता से जूझता हुआ सिमटता जा रहा है क्योंकि कोई और नाम हमें याद आता ही नहीं है। कोई भी चरित नायक या लेखक शत - प्रतिशत खरा नहीं होता। कमल किशोर गोयनका प्रेमचन्द के बड़े अध्येता माने जाते हैं मगर जब उन्होंने प्रेमचन्द की निरपेक्ष दृष्टि से देखने का प्रयास किया तो आपने उनकी भी आलोचना कर डाली...अब क्या यह हिप्पोक्रेसी नहीं है?
मेरी समझ में लेखन का आदर्श वहाँ हैं जहाँ लेखक के जीवन और साहित्य में एकरूपता हो। प्रेमचन्द साहित्य में जितने भी ऊँचे मापदण्ड बनाते हैं, वह भी एकतरफा हैं और पुरुषों को भी वे छूट लेने देते हैं। आप कर्मभूमि के अमरकान्त का चरित्र लीजिए। प्रेमचन्द अपने नायकों को यह छूट देते हैं कि स्त्री से अनबन हो तो उनका किसी और स्त्री से प्रेम होना स्वाभाविक है...इतनी ही नहीं वे यह बातें स्त्री पात्रों से कहलाते भी हैं। सुखदा के अलावा सलीमा और कुछ हद तक मुन्नी कर्मभूमि में ऐसे ही चरित्र हैं।
पता नहीं, क्यों ऐसा लगता है कि ऐसा करके वह छूट अपने लिए ले रहे हैं। सब जानते हैं कि प्रेमचन्द का पहला विवाह 15 वर्ष की उम्र में हो गया था और बाद में विच्छेद भी हो गया। उसका कारण यह है कि वह बदसूरत थीं और झगड़े करती थीं...क्या यह दो वजहें मुंशी जी की नजर में किसी स्त्री को इतने अधिकार देती हैं कि वह किसी पुरुष को छोड़े? उनकी नायिकायें किसी कमजोर नायक को भी नहीं छोड़तीं। इतना ही नहीं, वे अपना मूल चरित्र त्यागकर झुक भी जाती हैं। सुखदा और मालती का चरित्र इस बात उदाहरण है कि मुंशी को सशक्त स्त्रियाँ भाती नहीं थीं और शहरी स्त्री तो उनकी नजर में तितली है..गोदान की मालती को उन्होंने यही नाम दिया है। उनकी सारी उम्मीदें स्त्रियों से हैं और इस बहाने उन्होंने पुरुषों के लिए भरपूर छूट ली है...अब मेरी नजर में तो यह दोहरापन है, आपकी नजर में भले ही युगीन आदर्श हो क्योंकि महाकवि निराला जैसे व्यक्ति भी उसी युग में थे जिन्होंने सरोज स्मृति जैसी कविता दी...यह पहली कविता थी जिसमें बेटी को केन्द्र में रखा गया है मगर आप प्रेमचन्द की तरह निराला को याद नहीं करते क्योंकि वह आपकी पितृसत्तात्मक संरचना में फिट नहीं बैठते। प्रेमचन्द घर में प्रेमचन्द की दूसरी पत्नी शिवरानी देवी यह मसला उठाती हैं।
प्रेमचन्द यहाँ उसी सामन्ती पुरूषवादी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं, जो सिद्धान्त रूप में तो स्त्री को देवी का दर्जा देती है, परन्तु व्यवहार में एक भोग्या से ज्यादा नहीं समझती। प्रेमचन्द के मेहता की निगाह में स्त्री के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य हैं त्याग, सेवा और समर्पण। इन मूल्यों से विचलित होकर यदि उसने पुरूष की बराबरी की आकांक्षा में घर की चौखट लांघने का प्रत्यन किया तो वह कुलटा हो जायेगी। मेहता के लिए आदर्श नारी का रोल मॉडल गोविन्दी है, जो पति के तमाम अत्याचारों और उसकी रंगीन तबीयत को सहन करते हुए भी उसकी होकर रहती है। यही कारण है कि प्रेमचन्द के हाथों एक स्वतन्त्रचेता आधुनिक सोच वाली युवती मालती का रूपान्तरण घटनाओं की तार्किक परिणति के कारण न होकर लेखक के पूर्वग्रही विचारों के कारण होता है। मेहता की नजर में स्त्री का काम घर गृहस्थी और बच्चे सम्भालना है, तभी वह देवी कहलाने की पात्र है। देवी के इस आसन से उतरकर स्त्री ने जैसे ही पुरूष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने की कोशिश की, तो वह देवी के सिंहासन से च्युत होकर कुलटा बन जाती है। इसी मानसिकता के कारण मेहता सरोज के प्रेम के उपरान्त विवाह करने के विचार को गलत ठहराता है। प्रेम स्त्री को स्वतन्त्र निर्णय और चयन का अधिकार देता है। प्रेमचन्द की परम्परावादी नारीदृष्टि स्त्री को प्रेम का अधिकार कैसे दे सकती थी?

स्त्रियों की शिक्षा का विरोध मध्यकालीन सामन्ती परिवेश में देखा जा सकता है, लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि नवजागृति की सांस लेते और आधुनिकता की पहली सीढ़ी पर पैर रखते भारतीय समाज में प्रेमचन्द ऐसे विचारों को प्रतिष्ठित कर रहे थे। प्रेमचन्द के मेहता भी स्त्रियों को पुरूषों के समान शिक्षा देना उचित नहीं समझते और उनके लिए घरदारी और शिशु पालन को ही महत्वूपर्ण शिक्षा मानते है। इनके साथ-साथ सेवा, ध्यान और समर्पण जैसे ‘स्त्रियोचित’ मूल्य तो हैं ही। ग्रामकथा में जहां प्रेमचन्द कथा का स्वाभाविक प्रवाह होने देते है, वहाँ धनिया जैसी स्त्रियों में चुटकी भर स्वातन्त्र्य चेतना दिख भी जाती है, लेकिन नगर कथा में, जहां कथा प्रवाह का पूरा नियंत्रण लेखक के हाथों में है, मालती जैसी स्वतन्त्रचेता स्त्री को प्रेमचन्द गोविन्दी जैसी सेवा, त्याग और समर्पण जैसे मूल्यों से परिपूर्ण स्त्री बनाकर ही दम लेते है। सशक्त स्त्रियाँ मुंशी जी को नहीं भातीं..क्या यह उनकी असुरक्षा नहीं है। इतना ही नहीं, वे शिवरानी देवी को भी हतोत्साहित करते रहे। शिवरानी देवी लिखती हैं - 'एक बार गोरखपुर में डा. एनी बेसेंट की लिखी हुई एक किताब आप लाए. मैंने वह किताब पढ़ने के लिए माँगी. आप बोले - तुम्हारी समझ में नहीं आएगी. मैं बोली - क्यों नहीं आएगी ? मुझे दीजिए तो सही. उसे मैं छः महीने तक पढ़ती रही। रामायण की तरह उसका पाठ करती रही. उसके एक-एक शब्द को मुझे ध्यान में चढ़ा लेना था क्योंकि उन्होंने कहा था कि यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगी. मैं उस किताब को खतम कर चुकी तो उनके हाथ में देते हुए बोली - अच्छा, आप इसके बारे में मुझसे पूछिए। मैं इसे पूरा पढ़ गई. आप हँसते हुए बोले - अच्छा !' इतना अविश्वास....? सब जानते हैं कि शिवरानी देवी खुद अच्छी कहानीकार थीं।
 प्रेमचन्द घर में पति की पहली पत्नी के प्रति उनकी सहानुभूति दिखती भी है। प्रेमचंद का पहला विवाह पंद्रह वर्ष की आयु में हुआ था। उस समय वे नौंवी कक्षा में पढ़ते थे। 1904 में उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया। आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया। रंजना अरगड़े लिखती हैं कि विवाह के नियम स्त्री तथा पुरुषों, दोनों पर समान रूप से लागू किए जाएं तथा पुरुष पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह न कर पाए। पुरुष की संपत्ति पर पत्नी का पूरा अधिकार हो वह या तो उसे( अपने हिस्से की संपत्ति को) रेहन पर रखे या व्यय करे।
इसमें जो पहली बात है उसका पालन तो प्रेमचन्द जी नहीं कर पाए। पहली पत्नी के होते उन्होंने शिवरानी देवी से विवाह किया था। इस संदर्भ में शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक में दो स्थानों पर उल्लेख किया है। चूंकि किताब में कोई समय-क्रम नहीं है अतः पहले उल्लेख(पृ 7) को बाद वाला एवं बाद वाले उल्लेख( पृ-25,26) को पहले वाला मानना चाहिए। बस्ती, 1914 में शिवरानी देवी ने उस प्रसंग को का उल्लेख किया है जब प्रेमचन्द की पूर्व-पत्नी के भाई उनसे मिलने आते हैं और अपनी बहन के दुखों का बयान करते हैं। यह संवाद शिवरानी देवी सुन लेती हैं। पूछने पर भी प्रेमचन्द बताते नहीं हैं । शिवरानी देवी के बदन का खून गरम हो रहा था (26)। इस मुद्दे पर दोनों में तीखी बहस हो जाती है। शिवरानी देवी लिखती हैं कि वही पहला दिन था जब मुझे मालूम हुआ कि वे अभी ज़िंदा हैं। मुझे तो धोखा दिया जाता रहा कि वे मर गई हैं(26)। शिवरानी देवी जब प्रेमचन्द से इस संदर्भ में जवाब-तलब करती हैं तब प्रेमचन्द का जवाब चौंकाने वाला और कम-से-कम लेखकोचित तो नहीं ही है, (फिर प्रेमचन्द जैसा लेखक) जिसको इन्सान समझे कि जीवित है, वही जीवित है। जिसे समझे मर गया, मर गया(26)। शिवरानी देवी का आग्रह था कि उन्हें भी साथ रहने बुला लिया जाए। प्रेमचन्द के मना करने पर शिवरानी देवी कहती हैं एक आदमी का जीवन मिट्टी में मिलाने का आपको क्या हक़ है । इस पर प्रेमचन्द का जवाब है-हक़ वगैरह की कोई बात नहीं है ।(4) आश्चर्य की बात यह है कि पहली पत्नी को लेकर वे भूले से भी बात नहीं करते और न ही उनके बेटे श्रीपत राय या अमृत राय के यहाँ ऐसा उल्लेख मिलता है। हिन्दी के किसी आलोचक ने भी जरूरत नहीं समझी कि इस अधूरे पक्ष पर बात की जाये और उनकी पहली पत्नी का भी पक्ष जाना जाये।
इसी संदर्भ में जब दूसरी बार बात होती है तब शिवरानी देवी कहती हैं एक की तो मिट्टी पलीद कर दी जिसकी कुरेदन मुझे हमेशा होती है। जिसको हम बुरा समझते हैं वह हमारे ही यहाँ हो और हमारे ही हाथों हो। मैं स्वयं तकलीफ़ सहने को तैयार हूँ, पर स्त्री जाति की तकलीफ़ मैं नहीं सह सकती। मेरे पिता को मालूम होता तो आपके साथ मेरी शादी हर्गिज न करते। फिर आगे वह कहती हैं कि अगर मेरा बस चलता तो मैं सब जगह ढिंढोरा पिटवाती कि कोई भी तुम्हारे साथ शादी न करे। (5)
ये पूरा प्रकरण क्या दर्शाता है? स्त्री के सतीत्व को प्रेमचंद ने भरपूर नहीं बल्कि अतिरिक्त सम्मान दिया है और उसकी पवित्रता पJ प्रश्नचिन्ह उठाने वालों के लिये वो अपने उपन्यास ‘प्रतिज्ञा’ में लिखते हैं “स्त्री हारे दर्जे ही दुराचारिणी होती है, अपने सतीत्व से ज्यादा उसे संसार की किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता और न ही वो किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है” मगर पति के कर्तव्यों पर उन्होंने चुप्पी साध रखी है।
“नारी मात्र माता है और इसके उपरान्त वो जो कुछ है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व विश्व की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है। मुंशी जी पिता के कर्तव्यों पर क्यों मौन रहे, वही जानें।
प्रेमचन्द नारी शिक्षा को आवश्यक समझते थे। उनका मत था- ‘‘जब तक सब स्त्रियाँ शिक्षित नहीं होंगी और सब कानून-अधिकार उनको बराबर न मिल जायेंगे, तब तक महज बराबर काम करने से भी काम नहीं चलेगा।’’४ अपने उपन्यासों के पात्रों के द्वारा भी उन्होंने इस बात का समर्थन किया है। ‘गबन’ नामक उपन्यास के पात्र पं. इन्द्रभूषण का कहना है- ‘‘जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी प्रचार न होगा, हमारा कभी उद्धार नहीं होगा।’’५ गोदान का पात्र प्रो. मेहता भी ‘वीमेन्स लीग’ के समारोह में भाषण देते वक्त स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता और महत्व का उद्घाटन करता है। मजे की बात यह है कि खुद अपनी बेटी की शिक्षा पर उनका इतना ध्यान नहीं जाता..और तो और वे बाकायदा दहेज देकर बेटी की शादी भी करते हैं...कहाँ रह गया जीवन में आदर्श? दूसरी ओर निराला हैं जिन्होंने अपनी पत्नी मनोहरा देवी और बेटी सरोज को पूरा सम्मान दिया बल्कि समाज का तिरस्कार भी आजीवन सहा। रंजना अरगड़े लिखती हैं कि 'लेकिन यह बात सर्वविदित है कि प्रेमचन्द ने अपनी लड़की की पढ़ाई की तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया था। इसका कोई खुलासा शिवरानी देवी ने नहीं किया है। परन्तु अमृत राय ने अपनी पुस्तक कलम का सिपाही में लिखा है-
मुंशीजी की बेटी के साथ भी यही बात थी। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई का सुयोग उसे नहीं मिला—या नहीं दिया गया। कुछ रोज़ लखनऊ के महिला विद्यालय में गई मगर फिर वहाँ से भी उसे छुड़ा लिया गया।
आजकल जहाँ अनपढ़ लड़कियों पर उंगलियाँ उठती हैं, चालीस-पैंतालीस साल पहले पढ़ी-लिखी लड़की पर उठा करती थीं। लड़की को पढ़ाना अपने आप में एक क्रांति थी। मुंशीजी भी शायद इस क्रांति के लिए तैयार नहीं थे।(13)


अमृत राय बताते हैं कि प्रेमचन्द की बेटी जब छोटी थी तब वे बस्ती में रहते थे, जो एक छोटी जगह थी। जब बेटी कछ पढ़ने-लिखने लायक हुई तब उनका गोरखपुर का आबदाना छूट गया था। बाद में कहीं भी जमकर उनका रहना नहीं हो सका। फिर लड़की को बाहर भेज कर पढ़ाना संभव न था। (यहाँ इस बात को याद कर लेना चाहिए कि महादेवी जी ने लगभग सत्याग्रह कर के इलाहाबाद जा कर पढ़ने के लिए अपने माता-पिता को राज़ी किया था। ऐसा सब के लिए संभव नहीं होता।)
कुछ इत्मीनान उनको लखनऊ में मिला। पर, अमृत राय लिखते है-बेटों की पढ़ाई, जो अपनी बहन से छोटे थे, वहीं शुरु हुई लेकिन बेटी की पढ़ाई शुरु करने के लिए तब तक ज़्यादा देर हो चुकी थी। आधे मन से कुछ कोशिश ज़रूर हुई, पर आधे मन से। क़िस्सा कोताह वह पढ़ नहीं सकी और चूल्हा पकड़े बैठी रही जो कि घर की सयानी लड़की का काम है। (14) अमृत राय तर्क भी देते हैं कि माँ की बीमारी के कारण भी, हो सकता ही कि उसे स्कूल न भेजा गया हो। बहरहाल, जो कारण रहा हो, यह बेहद अफ़सोस जनक ही कहा जाएगा कि स्त्री-शिक्षा के सघन समर्थक प्रेमचन्द स्वयं अपनी बेटी को न पढ़ा सके हों। ज़माने को लानत भेज कर भी यह बात तो बनी ही रहती है कि उनकी बेटी शिक्षा से वंचित रही।'
अधिकतर लोग समझते हैं कि मुंशी जी आर्थिक अभावों में जीए थे मगर कमल किशोर गोयनका के ये तथ्य आपकी आँख पर से परदा हटाने को काफी है। जरा ध्यान दीजिए। कमल किशोर गोयनका लिखते हैं कि 'अधिकतर लोग समझते हैं कि प्रेमचंद आर्थिक तौर पर कमज़ोर थे लेकिन यह सत्य नहीं है चूंकि उनके निधन उपरांत भी उनके बैंक में पर्याप्त राशि थी। गोयनका कहते है कि "हाँ, मैंने प्रेमचंद के गरीब न होने पर लिखा था। डा. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिन्दा रहे और गरीबी में ही मर गये। यह सर्वथा तथ्यों के विपरीत है। "कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं:-
'उनका पहला वेतन 20 रुपये मासिक था वर्ष 1900 में जब 4-5 रुपये में लोग परिवार चलाते थे। उन्होंने लिखा है कि यह वेतन उनकी ऊँची से ऊँची उडान में भी नहीं था।
प्रेमचंद ने फरवरी, 1921 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया था। तब उनका वेतन था 150 रुपये मासिक। उस समय सोना लगभग 20 रुपये तोला (लगभग 11.5 ग्राम) था। आप सोचें आज की मुद्रा में कितना रुपया हुआ ?
प्रेमचंद ने अपनी एकमात्र पुत्री कमलादेवी के विवाह में ( 1929 में) लगभग सात हजार रूपये खर्च किये थे। इसकी जानकारी मुझे स्वयं कमलादेवी ने दी थी।
वर्ष 1929 के आसपास लमही गाँव में प्रेमचंद ने 6-7 हजार रुपये लगाकर मकान बनवाया था।
'माधुरी' पत्रिका के सम्पादक बने तो वेतन था 150 रुपये मासिक।
बम्बई की फिल्म कम्पनी में नौकरी की वर्ष 1934-35 में तब वेतन था 800 रुपये मासिक। लौटने पर बेटी के लिए हीरे की लौंग लेकर आये थे। आज की धनराशि में 800 रुपये लगभग 6-7 लाख के बराबर है।
प्रेमचंद के पास दो बीमा पालिसी थीं। उस समय यह बहुत बडी बात थी।
प्रेमचंद ने वर्ष 1936 में रेडियो दिल्ली से दो कहानियों का पाठ किया और उन्हें 100 रुपये पारिश्रमिक मिला। आज उस समय के 100 रुपये लगभग एक लाख के बराबर होंगे।
प्रेमचंद की मृत्यु के 14 दिन पहले उनके दो बैंक खातों में लगभग 4500 रुपये थे।' गोयनका लिखते हैं कि "ये सारे तथ्य उपलब्ध दस्तावेज़ों के आधार पर हैं। उनकी जीवनी से इन तथ्यों को गायब करने का क्या औचित्य था ? प्रगतिशील लेखकों को इससे बडा आघात लगा और वे आज तक मुझे गालियाँ दे रहे हैं पर वे यह नहीं कहते कि ये तथ्य झूठे हैं। वे इन्हें सत्य मानते हैं लेकिन उद्घाटन करने पर गालियाँ देते हैं। इसे ही वे वैज्ञानिक आलोचना कहते हैं । उनकी तकलीफ यह है कि उनकी झूठी स्थापनाओं की कलई खुल गयी है।"कमल किशोर जी द्वारा दिये गये तथ्य भारत दर्शन पर उपलब्ध हैं और कलकत्ता विश्वविद्यालय व साहित्यिकी के सेमिनार में उन्होंने ये बातें दोहरायी थीं और वे प्रेमचन्द जब वेतन की तुलना पूरनमासी के चाँद से करते हैं तो सच मानिए बड़ा अजीब लगता है क्योंकि उस जमाने में उनके पास जो था, बहुतों के पास नहीं था।
तुलना नहीं करते हुए भी  मुझे जयशंकर प्रसाद की छोटा जादूगर, जैनेन्द्र की पाजेब..कहीं से ईदगाह से कम नहीं लगती। रेणु की रसप्रिया तथा तीसरी कसम का अपना शिल्प है...मगर पता नहीं क्यों...आप इस पर बात नहीं करना चाहते। अगर आदर्श की बात की जाए और उपेक्षित पात्रों की बात की जाए तो मैथिली शरण गुप्त मुंशी जी के बहुत पहले इसकी शुरुआत कर चुके थे। उन्होंने उर्मिला और कैकयी जैसे चरित्रों को उठाया जो कि बड़ी बात है मगर आप इनको एक युग का हिस्सा मानकर छोड़ देते हैं। महादेवी वर्मा का गद्य किस मायने में कम है, ये तो आलोचक समझें मगर आप उनको छायावाद में भी सबसे पीछे रखते हैं। आप सुभद्रा कुमारी चौहान पर बात नहीं करते जिन्होंने हमें झाँसी की रानी जैसी कविता दी। हमने ये जो सन्दर्भ हैं..वे महज हिस्सा हैं...बात करेंगे तो दूर तक जायेगी मगर हिन्दी साहित्य और भारतीय इतिहास की चर्चा को आप दूर तक ले जाना चाहते हैं तो आपको किसी भी लेखक को अलौकिक भाव से देखना बन्द करना हो, फिर वह आपके मुंशी जी ही क्यों न हों।
(सन्दर्भ - भारत दर्शन, सीयू में कमल किशोर गोयनका का व्याख्यान तथा लेखिका रंजना अरगड़े के ब्लॉग से...साभार.और बाकी जो मैं सोचती हूँ)

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