संघ कट्टर है तो उतने ही कट्टर और एकांगी आप भी हैं...



विरोध की अन्धी राजनीति के शिकार जब हम हो जाते हैं तो अच्छा और बुरा कुछ नहीं दिखता। हम सिर्फ बुराइयाँ देखते हैं और उसे नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। भारतीय राजनीति इन दिनों इसी दौर से गुजर रही है जहाँ न सामन्जस्य दिखता है, न सौहार्द और न शिष्टाचार। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी नाराज हैं कि भीमा कोरेगाँव मामले में 5 वरिष्ठ वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। किसी को अघोषित आपातकाल नजर आ रहा है। इन बुद्धिजीवियों पर मेरा कुछ कहना सही नहीं है इसलिए इन पर कोई टिप्पणी नहीं करूँगी मगर उदारवाद की बात करने वाले कितने उदार हैं, ये उनको अपने अन्दर झाँकना चाहिए। आप साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की जमात में तभी शामिल हो सकते हैं जब आप मोदी, भाजपा और आरएसएस का विरोध करें...तभी आपको जगह मिलेगी और आपको सुना जाएगा...। सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे लोग और ऐसे समूह भी दिखे जो विचारधारा के विरोध से नीचे गिरकर इस गटर तक पहुँच गये हैं कि अब व्यक्तिगत हमलों पर उतर गये हैं और यह बीमारी दोनों तरफ है...फिर भी आप खुद को उदार और सामन्जस्य करने वाला कहते हैं तो शायद उदार मानसिकता का अर्थ भी खोजना होगा। सांस्कृतिक और सृजनात्मक स्तर पर आपका लेखन भी इसी दिशा में जा रहा है कि आपने अपने आस - पास भी घेरा बना लिया है और उससे बाहर निकल ही नहीं पा रहे हैं...यह बौद्धिकता का अहं भी अहंकार ही है जो किसी और की अच्छाइयों को स्वीकार करने ही नहीं दे रहा है। यह अहंकार ही है कि आपने मान लिया कि भाजपा और आरएसएस या उनकी पार्टी के नेता किसी भी ऊँचे पद या प्रधानमंत्री पद के योग्य ही नहीं हैं और यह उतना ही घटिया और खतरनाक है जितना राहुल गाँधी को पप्पू कहकर प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी को सिरे से खारिज कर देना। हाँलाकि निजी तौर पर मैं यही मानती हूँ कि राहुल से बेहतर नेता उनकी पार्टी में हैं मगर कौन नहीं जानता कि गाँधी परिवार का विकल्प बनने वालों के साथ क्या हुआ। क्या माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट की अकस्मात हादसों में मौत महज एक संयोग थी, मैं नहीं मानती...ये बात हजम नहीं होती। लालकृष्ण आडवाणी के सम्मान को लेकर चिन्तित हो रही पार्टी को याद आना चाहिए कि उन्होंने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को किस तरह किनारे लगाया था। यहाँ तक कि दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार न नहीं होने दिया गया और न ही पार्टी मुख्यालय में उनका शव लाने दिया गया...। ये कौन सा लोकतन्त्र है, अब ये तो राहुल गाँधी समझायेंगे...राजनीति का चारणकाल देखना हो तो वर्तमान कांग्रेस को देखा जा सकता है। राजनेता लड़ते हैं....समझा जा सकता है मगर कला और साहित्य के लोग विचारधारा के विरोध को व्यक्तिगत विरोध तक ले जाते हैं तो दया भी आती है और अफसोस भी होता है। जो सम्मान अटल जी को मोदी सरकार ने दिया...उसका आधा भी आपने अपने नेताओं को नहीं दिया। कौन सा प्रधानमंत्री इस तरह पैदल चला जैसे मोदी अटल जी की अंतिम यात्रा में चले...वैसे दृष्टि आपकी अपनी है, जिस रूप में देखिए।
ये आरएसएस का ही कार्यक्रम है

 वाम पार्टियों ने 40 साल तक पार्टी को सेवा देने वाले सोमनाथ चटर्जी के साथ क्या किया...ये सब जानते हैं...इसमें कौन सा आदर छुपा था? इसे लेकर मैंने किसी बुद्धिजीवी को कभी रोते नहीं देखा....ये कौन सी उदारता है? 1993 में वाममोर्चा की ही सरकार थी जब बाल पकड़कर ममता बनर्जी को धक्के देकर राइटर्स से निकाला गया। 2007 में नन्दीग्राम में 14 किसानों पर गोलियाँ चलीं...तब भी आपकी ही सरकार थी...सिंगुर और नन्दीग्राम में जब हिंसा हुई, तब भी आपकी ही सरकार थी...क्यों नहीं आप इस पर बात करते? सर्वहारा वर्ग के लिए लड़ने और आन्दोलन की बात करने वाले वामपंथियों को याद रखना चाहिए कि खुद उनके राज में उन्होंने क्या किया था। आज केरल में हिंसा हो रही है तो भी अभी आपकी ही सरकार वहाँ पर है...क्यों नहीं बोल फूटते किसी के? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर लानतें भेजने वाले साहित्यकार तब क्यों मौन हो जाते हैं जब तसलीमा नसरीन को वाममोर्चा और तृणमूल, दोनों ही सरकारें बंगाल नहीं आने देतीं। कोई मुझे बताये कि शहीद दिवस पर होने वाले तमाशे को सरकारी समारोह की तरह क्यों मनाया जाता है कि आम आदमी और बच्चे भी कड़ी धूप में चलने को मजबूर होते हैं....। तृणमूल के पास ऐसा कौन सा जादू है कि किसी भाजपा नेता के दौरे के बाद ही उसकी आवभगत करने वाला अगले दिन तृणमूल में शामिल हो जाता है? मीडिया को एक बार नहीं, कई बार दीदी के राज में पीटा गया है...एक किसान को जब सवाल करने पर और एक छात्रा के सवाल करने पर जब माओवादी कहा गया तब आप खामोश क्यों रहे? आप आरएसएस से पूछते हैं कि स्वाधीनता सँग्राम में उनका योगदान क्या था तो आपको यह भी बताना चाहिए कि आपने कौन सी लड़ाई लड़ी। भगत सिंह हों या कोई और क्रान्तिकारी, वे इस देश के थे और इस देश के लिए लड़े थे...किसी खास पार्टी का लेबल चस्पा करना उनका अपमान करना है। फारर्वड ब्लॉक नेताजी के साथ कांग्रेस में हुए बर्ताव को क्यों भूल जाती है। आज के वामपंथी आखिर किस वामपंथ को अपना आधार मानते हैं? क्या वे रूस के उस वामपंथ को फॉलो करते हैं जिसकी नींव मार्क्स और लेनिन के विचारों पर पड़ी थी? लेकिन उस पर तो स्टालिन ने असल इमारत बनाई थी। और उस स्टालिन ने तो वैचारिक विरोधियों को पूरी तरह से साफ करते हुए असहिष्णुता का एक पैमाना गढ़ दिया था। भगत सिंह ऐसे असहिष्णु तो नहीं थे। या फिर आज के वामपंथी चीन के उस वामपंथ को मानते हैं जिसमें ‘साम्यवाद’ और साम्रज्यवाद के सहारे अमीरों और गरीबों के बीच का फासला लगातार बढ़ता जा रहा है। भगत सिंह तो ऐसे भी नहीं थे। आज की कम्यूनिस्ट पार्टियाँ उस आदर्श पर चल भी नहीं रही हैं। खासकर इनके छात्र संगठनों को देखती हूँ तो वह अराजकता का प्रतिरूप ही लगते हैं जिनके लिए आन्दोलन का मतलब ही शिक्षकों का घेराव कर उनकी ब्लैकमेलिंग करना ही है।

अनुशासन शब्द से इनको नफरत है। ये एसएफआई के समर्थक ही थे जिन्होंने एक प्रिंसिपल पर पेट्रोल उड़ेल दिया था और अधिकतर छात्र संगठन यही रास्ता अपना रहे हैं। कांग्रेस का छात्र संगठन तो अध्यक्ष के सामने ही लड़ पड़ता है और टीएमसीपी की गुटबाजी तो जगजाहिर है। इसमें एबीवीपी भी कम नहीं हैं.....राजनीति करने का दूसरा तरीका आग लगाने वाले बयान देना हो गया है। ये कौन सा देशप्रेम है जो आपको कश्मीर में साम्राज्यवाद देखना सिखाता है, सेना को शोषक मानना सिखाता है...सुरक्षा बलों को गालियाँ देना सिखाता है? मानवतावाद का मतलब अपने घर में आग लगाकर दुश्मनों को कमान देना कब से हो गया? ये कौन सी बौद्धिकता है जो आपको परम्परा और इतिहास को खारिज करना सिखाती है? आपने जिस चीन और रूस की परम्परा को कभी आँख से खुद नहीं देखा...उसे आप सत्य मानते हैं मगर आपकी नजर में आपका अपना प्राचीन भारतीय साहित्य, कला, स्थान और यहाँ तक कि आज सेना का अभियान फर्जी है। आप अल्पसंख्यकों में असुरक्षा भरते जा रहे हैं मगर आप तीन तलाक को लेकर कभी नहीं बोलते। दूसरी तरफ तीन तलाक पर रोने वाले वैवााहिक बलात्कार के मुद्दे पर खामोश हैं। आप छोटे बच्चों पर हिंसा को लेकर खामोश हैं। आप गौरी लंकेश और कलबुर्गी को लेकर रोते हैं मगर आपके आस -पास हर रोज पत्रकार मरते हैं तो आप उनके लिए खड़े नहीं होते। आपकी मॉब लिचिंग का विरोध भी सिलेक्टिव है। आप धार्मिक स्थलों और आरक्षण में महिलाओं को स्थान दिलाने की बात पर संसद में हंगामा नहीं करते। टिकटों के मामले में तो हर पार्टी में महिलाओं की भागीदारी न्यूनतम है। आपके लिए विचारधारा का विरोध व्यक्ति विरोध में सिमट गया है और यह आपको अब अप्रासंगिक ही नहीं हास्यास्पद बना रहा है।
आज के वामपंथी आखिर किस वामपंथ को अपना आधार मानते हैं? क्या वे रूस के उस वामपंथ को फॉलो करते हैं जिसकी नींव मार्क्स और लेनिन के विचारों पर पड़ी थी? लेकिन उस पर तो स्टालिन ने असल इमारत बनाई थी। और उस स्टालिन ने तो वैचारिक विरोधियों को पूरी तरह से साफ करते हुए असहिष्णुता का एक पैमाना गढ़ दिया था। भगत सिंह ऐसे असहिष्णु तो नहीं थे। या फिर आज के वामपंथी चीन के उस वामपंथ को मानते हैं जिसमें ‘साम्यवाद’ और साम्रज्यवाद के सहारे अमीरों और गरीबों के बीच का फासला लगातार बढ़ता जा रहा है। भगत सिंह तो ऐसे भी नहीं थे।
बात अगर योगदान की है तो आलोचकों की प्रेरणा से ही मैंने राष्ट्रीय सेवक संघ के बारे में पढ़ा। पसन्द न करने का मतलब पूरी तरह खारिज कर देना हो गया है। क्या विष्णुकान्त शास्त्री, मुरली मनोहर जोशी और सावरकर जैसे नेता इसलिए खारिज किये जाएँगे कि वह संघ से जुड़े हैं? दोनों तरफ के तथाकथित बुद्धिजीवी एक दूसरे के लिए गदहे जैसे शब्द इस्तेमाल करते हैं...आप क्या देकर जा रहे हैं भावी पीढ़ी को...यह सोचने वाली बात है। शर्म की बात यह है कि संसद की कार्रवाई से प्रधानमंत्री के शब्द हटाने पड़ रहे हैं तो विपक्ष का नेता गले लगकर संसद में आँख मारता है।

जब बात विरोध के साथ योगदान की चली तो पूछा गया कि संघ व आरएसएस का योगदान क्या है। मेरे मन में भी जिज्ञासा हुई तो मैंने खोजा और बीबीसी हिन्दी (जी हाँ, वही बीबीसी जो संघ और भाजपा के साथ कट्टर मोदी विरोधी भी है) की वेबसाइट पर यह आलेख मिला जो मैं आपको पढ़वा रही हूँ।
साम्प्रदायिक हिंदूवादी, फ़ासीवादी और इसी तरह के अन्य शब्दों से पुकारे जाने वाले संगठन के तौर पर आलोचना सहते और सुनते हुए भी संघ को कम से कम 7-8 दशक हो चुके हैं। दुनिया में शायद ही किसी संगठन की इतनी आलोचना की गई होगी जितनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की की गयी है वह भी बिना किसी आधार के लेकिन यही संघ की महानता है कि संघ के ख़िलाफ़ लगा हर आरोप आख़िर में पूरी तरह कपोल-कल्पना और झूठ साबित हुआ है। इसके बावजूद इसमें कोई शक नहीं है कि आज भी कई लोग संघ को इसी नेहरूवादी दृष्टि से देखते हैं। नेहरूवादी सोच इसलिए क्योंकि देश के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहलाल नेहरू संघ के प्रति यही नफरत वाला भाव रखते थे हालांकि ख़ुद नेहरू जी को जीते-जी अपना दृष्टि-दोष ठीक करने का एक दुखद अवसर तब मिल गया था, जब 1962 में देश पर चीन का आक्रमण हुआ था। तब देश के बाहर पंचशील और लोकतंत्र वग़ैरह आदर्शों के मसीहा जवाहरलाल न ख़ुद को संभाल पा रहे थे, न देश की सीमाओं को. लेकिन संघ अपना काम कर रहा था।

आज आपको बताते हैं राष्ट्र के लिए आरएसएस के वो 10 योगदान जो आजादी के नकली ठेकेदार करना तो दूर सोच भी नहीं सकते हैं....

१- कश्मीर सीमा पर निगरानी, विभाजन पीड़ितों को आश्रय
जब 1947 में देश का विभाजन हुआ तो संघ के स्वयंसेवकों ने अक्टूबर 1947 से ही कश्मीर सीमा पर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर बगैर किसी प्रशिक्षण के लगातार नज़र रखी। ये काम न नेहरू-माउंटबेटन सरकार कर रही थी, न महाराजा हरिसिंह सरकार. उसी समय, जब पाकिस्तानी सेना की टुकड़ियों ने कश्मीर की सीमा लांघने की कोशिश की, तो सैनिकों के साथ कई स्वयंसेवकों ने भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ाई में प्राण दिए थे। विभाजन के दंगे भड़कने पर, जब नेहरू सरकार पूरी तरह हैरान-परेशान थी, संघ ने पाकिस्तान से जान बचाकर आए शरणार्थियों के लिए 3000 से ज़्यादा राहत शिविर लगाए थे।
२- 1962 का युद्ध
जब 1962 में भारत चीन का युद्ध हुआ तो सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक जिस उत्साह से सीमा पर पहुँचे, उसे पूरे देश ने देखा और सराहा। स्वयंसेवकों ने सरकारी कार्यों में और विशेष रूप से जवानों की मदद में पूरी ताकत लगा दी - सैनिक आवाजाही मार्गों की चौकसी, प्रशासन की मदद, रसद और आपूर्ति में मदद, और यहां तक कि शहीदों के परिवारों की भी चिंता की तथा मदद की। यही कारण था कि जवाहर लाल नेहरू को 1963 में 26 जनवरी की परेड में संघ को शामिल होने का निमंत्रण देना पड़ा। परेड करने वालों को आज भी महीनों तैयारी करनी होती है, लेकिन मात्र दो दिन पहले मिले निमंत्रण पर 3500 स्वयंसेवक गणवेश में उपस्थित हो गए. निमंत्रण दिए जाने की आलोचना होने पर तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री नेहरू जी ने कहा, "यह दर्शाने के लिए कि केवल लाठी के बल पर भी सफलतापूर्वक बम और चीनी सशस्त्र बलों से लड़ा सकता है, विशेष रूप से 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए आरएसएस को आकस्मिक आमंत्रित किया गया।"
३- कश्मीर का विलय
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह विलय का फ़ैसला नहीं कर पा रहे थे और उधर कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी सेना सीमा में घुसती जा रही थी तब नेहरू सरकार तो - हम क्या करें वाली मुद्रा में मौन साधकर बैठी थी तब सरदार पटेल ने गुरुजी गोलवलकर से मदद माँगी। गुरुजी श्रीनगर पहुँचे, महाराजा से मिले. इसके बाद महाराजा ने कश्मीर के भारत में विलय पत्र का प्रस्ताव दिल्ली भेज दिया।
४- 1965 के युद्ध में क़ानून-व्यवस्था संभाली
1965 में जब भारत पकिस्तान का युद्ध हुआ तो पाकिस्तान से युद्ध के समय प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी को भी संघ याद आया था। शास्त्री जी ने क़ानून-व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद देने और दिल्ली का यातायात नियंत्रण अपने हाथ में लेने का आग्रह किया, ताकि इन कार्यों से मुक्त किए गए पुलिसकर्मियों को सेना की मदद में लगाया जा सके। घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान करने वाले भी संघ के स्वयंसेवक थे। युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ़ हटाने का काम संघ के स्वयंसेवकों ने किया था।
५- गोवा का विलय
1947 में देश तो आजाद हो गया था लेकिन देश के कई हिस्से इस आजादी से अछूते थे तब दादरा, नगर हवेली और गोवा के भारत विलय में संघ ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। 21 जुलाई 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया। संघ के स्वयंसेवक 1955 से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे. गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से नेहरू के इनकार करने पर जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया, जिसका परिणाम जगन्नाथ राव जोशी सहित संघ के कार्यकर्ताओं को दस वर्ष की सजा सुनाए जाने में निकला. हालत बिगड़ने पर अंततः भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और 1961 में गोवा आज़ाद हुआ।
६- आपातकाल
1975 में प्रधानमन्त्री श्री इंदिरा गांधी जी ने जब देश में आपातकाल की घोषणा कर दी तब1975 से 1977 के बीच आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष और जनता पार्टी के गठन तक में संघ की भूमिका की याद अब भी कई लोगों के लिए ताज़ा है। सत्याग्रह में हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रह कर आंदोलन चलाना शुरु किया. आपातकाल के खिलाफ पोस्टर सड़कों पर चिपकाना, जनता को सूचनाएं देना और जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओं -नेताओं के बीच संवाद सूत्र का काम संघ कार्यकर्ताओं ने सम्भाला। जब लगभग सारे ही नेता जेलों में बंद थे, तब सारे दलों का विलय करा कर जनता पार्टी का गठन करवाने की कोशिशें संघ की ही मदद से चल सकी थीं।
७- भारतीय मज़दूर संघ
भारतीय मजदूर संघ आरएसएस की ही शाखा है। 1955 में बना भारतीय मज़दूर संघ शायद विश्व का पहला ऐसा मज़दूर आन्दोलन था, जो विध्वंस के बजाए निर्माण की धारणा पर चलता था। कारखानों में विश्वकर्मा जयंती का चलन भारतीय मज़दूर संघ ने ही शुरू किया था। आज यह विश्व का सबसे बड़ा, शांतिपूर्ण और रचनात्मक मज़दूर संगठन है।
८- ज़मींदारी प्रथा का ख़ात्मा
जहां बड़ी संख्या में ज़मींदार थे उस राजस्थान में ख़ुद सीपीएम को यह कहना पड़ा था कि भैरों सिंह शेखावत राजस्थान में प्रगतिशील शक्तियों के नेता हैं। संघ के स्वयंसेवक दादोसा माननीय श्री भैरों सिंह शेखावत बाद में भारत के उपराष्ट्रपति भी बने तथा आज भी न सिर्फ राजस्थान बल्कि पूरा देश शेखावत साहब को अपना नायक मानता है।


९- शिक्षा के क्षेत्र में संघ
शिक्षा के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का योगदान अतुलनीय है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, शिक्षा भारती, एकल विद्यालय, स्वदेशी जागरण मंच, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम आदि संघ के ही स्वयंसेवी संघठन हैं। विद्या भारती आज 20 हजार से ज्यादा स्कूल चलाता है, लगभग दो दर्जन शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज, डेढ़ दर्जन कॉलेज, 10 से ज्यादा रोजगार एवं प्रशिक्षण संस्थाएं चलाता है। केन्द्र और राज्य सरकारों से मान्यता प्राप्त इन सरस्वती शिशु मंदिरों में लगभग 30 लाख छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं और 1 लाख से अधिक शिक्षक पढ़ाते हैं। संख्या बल से भी बड़ी बात है कि ये संस्थाएं भारतीय संस्कारों को शिक्षा के साथ जोड़े रखती हैं। अकेला सेवा भारती देश भर के दूरदराज़ के और दुर्गम इलाक़ों में सेवा के एक लाख से ज़्यादा काम कर रहा है। लगभग 35 हज़ार एकल विद्यालयों में 10 लाख से ज़्यादा छात्र अपना जीवन संवार रहे हैं। उदाहरण के तौर पर सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर से आतंकवाद से अनाथ हुए 57 बच्चों को गोद लिया है।

१०- सेवा कार्य
देश में आयी आपदा के समय भी संघ आगे बढ़कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपना योगदान दिया है। 1971 में ओडिशा में आए भयंकर चंक्रवात से लेकर भोपाल की गैस त्रासदी तक, 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों से लेकर गुजरात के भूकंप, सुनामी की प्रलय, उत्तराखंड की बाढ़ और कारगिल युद्ध के घायलों की सेवा तक - संघ ने राहत और बचाव का काम हमेशा सबसे आगे होकर किया है। भारत में ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका और सुमात्रा तक में संघ ने आपातकालीन स्थितियों में मदद की है..!!
इस सबके बाद भी कांग्रेस पार्टी क्या अन्य सभी आजादी के नकली ठेकेदारों को संघ को गाली देने का, संघ को आतंकी बोलने का, संघ की आलोचना करने का पूर्ण अधिकार है, लेकिन संघ की जितनी ज्यादा आलोचना हुई है, संघ उतना ही ज्यादा मजबूत हुआ है तथा देश के नवनिर्माण में अपनी भूमिका निभाई है. यही कारण है कि संघ आज दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संघठन है तथा अनवरत हिन्दुस्तान तथा हिन्दुस्तान की गौरवशाली संस्कृति को संजोकर रखते हुए भारतमाता को पुनः विश्वगुरु की पदवी पर विराजमान कराने के लिए प्रयत्नशील है।
बीबीसी पर प्रकाशित आलेख का लिंक यह रहा https://www.bbc.com/hindi/india-44393179

खुद राहुल जी के नाना जी संघ की तारीफ करते हैं और राहुल जी सीधे मुस्लिम ब्रदरहुड से इसे जोड़ देते हैं। संघ के अनुशासन का लोहा तो सब मानते हैं मगर क्या वह अनुशासन आज किसी और राजनीतिक दल में है। अगर वैचारिक कट्टरता और हिन्दूत्व के कारण ही आप संघियों की बुराई करते हैं तो तुष्टिकरण की राजनीति कर आप भी इसी राह पर चल रहे हैं...आपने मुस्लिम समुदाय की जड़ता का विरोध नहीं किया...वहाँ मौलवियों के शोषण से परेशान महिलाओं का साथ कभी नहीं दिया....तो आप भी उसी राह के हिमायती साबित हो रहे हैं जिनके विरोध में आप कसीदे गढ़ते हैं। धर्मनिरपेक्षता का मतलब सर्व धर्म, सम भाव होता है न कि किसी एक समुदाय,मत अथवा धर्म को उसके बहुसंख्यकप्रिय होने की सजा देना...हिन्दू होना अगर गर्व की बात नहीं है तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि इस पर शर्म की जाए....सोच तो आप बदल नहीं सकते....एक झूठे अहंकार और बौद्धिकतावाद से ग्रस्त होना ही अगर पैठ बनाना और सामूहिकता का अंग है तो हम तो दूर ही अच्छे हैं...क्योंकि मुझे भारतीय, भारतीयता और उसकी हर बात से प्यार है...। धन्यवाद पत्थर फेंकने के लिए और फेंकिए...इमारत तो गढ़कर रहेंगे..जय हिन्द।

(सभी तस्वीरें - साभार )

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