वैचारिक लोकतन्त्र का मतलब अराजकता का समर्थन नहीं


अचानक ही हर कोई छात्रों के हितों को लेकर सक्रिय हो उठा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हमला क्या हुआ, सारे देश के बुद्धिजीवी और लेखक एक साथ सक्रिय हो उठे हैं। विश्वविद्यालयों में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए मगर क्या वैचारिक लोकतांत्रिक अधिकारों के नाम पर अराजकता का समर्थन किया जा सकता है। आप जब किसी संस्थान विशेष को लेकर कुछ अधिक ही द्रवित होते हैं तो उस समय अन्य संस्थानों और विद्यार्थियों के साथ अन्याय कर रहे होते हैं....मुझे लगता है कि इस समय देश में यही हो रहा है।
क्या विरोध करने का एक बड़ा कारण यह नहीं है कि इस समय केन्द्र में जो सरकार है, वह आपको फूटी आँखों नहीं सुहाती? यह सर्वविदित सत्य है कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग में 80 प्रतिशत वामपन्थ से प्रभावित है। साहित्य से लेकर सिनेमा और इतिहास में इनका दबदबा रहा है, इनके द्वारा गढ़ा गया इतिहास पढ़कर हम बड़े हुए हैं और वैचारिक आत्महीनता से त्रस्त रहे हैं मगर इस समय वामपन्थ को दक्षिण पन्थ से कड़ी चुनौती मिल रही है और हमेशा की तरह विद्यार्थियों को इस्तेमाल किया जा रहा है। जरा सोचिएगा, क्या हर विद्यार्थी आन्दोलन करना चाहता है, नहीं....जेयू और प्रेसिडेंसी से लेकर जेएनयू तक में ऐसे विद्यार्थी हैं जो किसी प्रकार के आन्दोलन से मतलब नहीं रखना चाहते..पढ़ना चाहते हैं मगर उन पर दबाव डालकर उनके सीनियर अपनी रैलियों में ले जाते हैं तो कई बार तो शिक्षकों ने भी अपने हितों के लिए विद्यार्थियों से धरना करवाया है। आखिर हम किस तरह के विद्यार्थियों के समर्थन में हैं...वह...जो संवाद की जगह 56 घंटे तक एक वृद्ध उपकुलपति को अपने कब्जे में रखता है..या वह जिनकी कैद में एक उपकुलपति बीमार हो जाता है,..। तय कीजिए कि आप किसके साथ खड़े हैं...वह छात्र...जो संस्थानों में बमबाजी करते हैं...बोतलें फेंकते हैं...वीसी के कक्ष के सामने कपड़े डालकर विरोध जताते हैं या वे जो अन्र्तर्वस्त्रों में उनकी मेज पर नाचते हैं....आपको किस तरह का प्रदर्शन चाहिए...छात्र राजनीति में हिंसा हमेशा से रही है मगर कभी भी बुद्धिजीवी और कलाकार इस कदर मुखर नहीं हुए...क्योंकि केन्द्र में सरकार किसी की भी हो...सत्ता उनकी ही रही...कौन नहीं जानता कि संस्थानों में किस प्रकार का भाई - भतीजावाद रहा...आप तब खामोश रहे क्योंकि आपकी सत्ता को चुनौती नहीं मिली।
क्या ऐसे ही डरे हुए शिक्षक चाहिए आपको?

आप इसे स्वतन्त्रता कह सकते हैं मगर विश्वविद्यालय परिसर में सिगरेट की राख और ऐतिहासिक शिक्षण संस्थानों में प्रेम केलियाँ करते युगल पूरी अश्लीलता के साथ सामने आते हैं...बाकायदा शराब की बोतलें..और कन्डोम...बरामद होते हैं...तो वह किसी शिक्षण संस्थान का आदर्श स्वरूप नहीं होती मगर आपके मुँह से एक शब्द नहीं निकलता...मगर इनमें से कुछ ऐसे बच्चे हैं जो असहज होते हैं...क्योंकि वे आम घरों से आने वाली लड़कियाँ भी होती हैं। बच्चे सिर्फ इस्तेमाल किये जाते हैं...
याद कीजिए 2010 में एसएफआई समर्थक स्वपन कोले की टीएमसीपी समर्थकों ने किस तरह पीट - पीटकर हत्या की थी...तब क्यों नहीं दिल काँपे आपके?
ये आपकी विचारधारा से अलग हैं इसलिए इनके साथ यही सलूक होना चाहिए? 

भारत में छात्र राजनीति का आरम्भ आज़ादी से लगभग सौ वर्ष पहले अठारह सौ अड़तालीस  में दादा भाई नौरोजी की  “स्टूडेंट सोसाइटी” की स्थापना के साथ हुआ। आज़ादी की लड़ाई में भी छात्र संगठनो ने अहम् भूमिका निभाई थी। वर्तमान में भी भारतीय राजनीति में कई बड़े चहरे हैं जिनकी शुरुआत छात्र राजनीति से हुई है असम के भूतपूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत, अरुण जेटली,लालू प्रसाद यादव आदि भी उसमे शामिल हैं।भारतीय लोकतंत्र में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमे छात्र शक्ति ने सत्ता को अपनी ताक़त दिखाई है और कई सफल आंदोलन किये हैं।जेपी आन्दोलन में भी छात्र संगठनो की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। पर दुर्भाग्यवश वर्तमान छात्र राजनीति से अपना इतिहास दोहराये जाने की आशा करना भी कल्पना से परे की बात है।
आपको ऐसे थके परेशान शिक्षक और प्रशासक चाहिए ?

आजकल की छात्र राजनीति में सभी छात्र-संगठन किसी न किसी राजनीतिक दल की छात्र ईकाई के रूप में कार्य कर रहे हैं जिनका एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना होता है।ये छात्र संगठन चुनाव जीतने के लिए सारे हथकंडे अपनाते हैं जिनका प्रयोग मुख़्य राजनीतिक दल अपने चुनाव जीतने के लिए करते हैं।देश के अधिकतर छात्र नेता खुद अराजकता फैलाते नज़र आते हैं।राजनीतिक दलों के इशारों पर काम कर अपनी टिकट पक्की करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य रहता है।अधिकतर छात्र नेताओं का सम्बन्ध किसी न किसी बड़े नेता से होता है और ये नेता अपने प्रियजनों को छात्र-नेता के रूप में स्थापित कर उनका राजनीतिक भविष्य बनाने के लिए अनैतिक कार्यो का सहारा लेने में कोई गुरेज़ नही करते।
ये सही है?

जिन विद्यार्थियों के पास फीस के पैसे नहीं होते, उनके पास पोस्टर, सिगरेट और शराब के पैसे कहाँ से आते होंगे...यह पूछने की जरूरत नहीं है। छात्र आन्दोलन का इतिहास नया नहीं है...आपातकाल से चला आ रहा है।  1974 में छात्र आन्दोलन आपातकाल के विरोध में शुरू हुआ। इसी दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और समाजवादी छात्रो ने पहली बार एकसाथ कर छात्र संघर्ष समिति का गठन कर आपातकाल का विरोध किया। जिसके लालू प्रसाद यादव अध्यक्ष चुने गए थे और सुशील कुमार मोदी महासचिव चुने गए थे जो आज बिहार के उप मुख्यमंत्री हैं। आपातकाल के विरोध प्रदर्शन के दौरान बहुत से छात्रों को बेरहमी से पीटा गया और उनको जेल में बंद कर दिया गया था। नेतृत्व विहीन आपातकाल आन्दोलन को नयी उर्जा के लिया जय प्रकाश नारायण को छात्रो द्वारा आमंत्रित किया गया और उसके बाद उन्होंने 'सम्पूर्ण क्रांति' का नारा दिया।

गोपालचंद्र सेन की हत्या
गांधी जब 1930 के दशक में बंगाल का दौरा कर रहे थे तो एक युवक उनके भाषणों से बहुत प्रभावित हुआ। जल्दी ही उसे एक समस्या का अहसास हुआ– गांधी को सुनने को जमा हुए लोग उन्हें ठीक से सुन नहीं पा रहे थे इसलिए उसने गांधी को एक स्वनिर्मित ‘पोर्टेबल स्पीकर’ भेंट किया– महात्मा को बहुत खुशी हुई। यह युवक गोपालचंद्र सेन थे, और उन्होंने अंत तक गांधीवादी जीवन जीया। सेन 1960 के दशक में जादवपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने. ये बंगाल में भारी अशांति का दौर था। खास कर युवाओं के लिए जो कि नक्सल आंदोलन से जुड़ रहे थे। जल्दी ही जादवपुर विश्वविद्यालय राजनीति और आंदोलनों का अखाड़ा बन गया। नक्सल छात्रों ने सेन से परीक्षाएं रद्द करने को कहा। सेन सहमत नहीं हुए। उनका कहना था कि जिन्हें बहिष्कार करना है वो करें पर इच्छुक छात्रों के लिए परीक्षाओं का आयोजन नहीं करना गलत होगा। परीक्षाएं हुईं। छुट्टियां शुरू हो जाने पर सेन ने पास होने का सर्टिफिकेट अपने आवास पर वितरित करने की पेशकश की। इस बीच बंगाल में नक्सलों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में तेजी आ रही थी। 30 दिसंबर 1970 को सेन अपने आवास की तरफ बढ़ रहे थे।अगले ही दिन वह सेवानिवृत होने वाले थे। शाम के छह बजे का वक्त था और वह एक सहकर्मी की कार में बैठकर जाने के लिए राजी नहीं हुए थे।
विरोध का यह तरीका असहज करता है

परिसर में ठीक पुस्तकालय के सामने सेन की हत्या कर दी गई. किसी को नहीं पता किसने की हत्या, पर इसके पीछे नक्सलियों का हाथ बताया गया। आज उस जगह पर स्थापित स्मारक इतिहास के उस काले अध्याय की याद दिलाता है। पूर्व कुलपति अभिजीत चक्रवर्ती ने 17 सितंबर 2014 की सुबह अपने कार्यालय भवन का घेराव कर रहे प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस बुलाने की वजह के रूप में सेन हत्याकांड का ही उल्लेख किया था। तब पुलिस कार्रवाई में बहुत से छात्र घायल हो गए थे।
छात्र दरअसल कैंपस में यौन दुर्व्यवहार की एक घटना पर पर्याप्त कदम नहीं उठाने और निष्क्रियता दिखाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन का विरोध कर रहे थे। विरोध का तरीका ऐसा कि विश्वविद्यालय में पढ़ाई लगभग 6 माह के लिए ठप हो गयी। विरोध अपनी जगह है मगर क्या इसका तरीका अभद्रता होनी चाहिए? आम तौर पर जेयू का दीक्षांत समारोह 24 दिसम्बर को ही होता है। आज भी दीक्षान्त समारोह स्थल की सजावट पर लगी कालिख, बहिष्कार के नारे और अब डिग्री फाड़ने की घटना....क्या शिक्षण संस्थानों की गरिमा का हनन नहीं है..या तथाकथित फासीवादी ताकतों के विरोध का हर तरीका जायज समझकर इसे भी स्वीकार कर लेंगे आप?
वैचारिक लोकतन्त्र का मतलब क्या होता है...एक बात समझनी है...यही कि गिलानी के समर्थन में नारे लगाए जाएँ....भारत के टुकड़े करने और कश्मीर की आजादी के नारे लगाए जाएँ? वैचारिक लोकतन्त्र का मतलब हर विचारधारा को सुनना और समझना है तो किसी विशेष विचारधारा के होने के कारण अपमानित करने की छूट कैसे और क्यों दी जानी चाहिए...क्या जेयू के विद्यार्थियों ने बाबुल सुप्रियो के साथ जो बदसलूकी की...उसे स्वीकार किया जाना चाहिए या प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और वीसी अनुराधा लोहिया के साथ जो बर्ताव विद्यार्थियों ने किया...आप उसे अपनी सहमति देंगे...क्यों नहीं तब जेएनयू की तरह लोग सामने आए?
इसे स्वीकार करने जा रहे हैं क्या आप ?

इसके पहले 2013 में एसएफआई नेता सुदीप्त गुप्त की मौत हुई थी और तब हुई थी जब प्रदर्शन के बाद पुलिस वैन में उनको ले जा रही थी और बस से गिरकर उनकी मौत हो गयी थी। हालांकि माकपा का दावा रहा है कि उनकी मौत पुलिस हिरासत में हुई...कितने शिक्षक उनके लिए सड़क पर उतरे थे...यह भी सवाल उठता है?
2 साल पहले की बात है। उत्तर दिनाजपुर के इस्लामपुर में द्वारीभिटा हाई स्कूल में बांग्ला शिक्षक की नियुक्ति को की मांग पर करीब 2000 छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था। आरोप है कि छात्र पुलिस पर ईट पत्थर आदि फेंक रहे थे। इस बीच पुलिस ने छात्रों पर आंसू गैस के गोले छोड़े, रबड़ की गोलियां चलाई और लाठीचार्ज भी किया लेकिन बाद में मौके पर पहुंचे थाना प्रभारी ने छात्रों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। पुलिस की फायरिंग में राजेश सरकार नाम के 27 साल के एक पूर्व छात्र और तापस बर्मन नाम के एक अन्य छात्र की मौत हो गयी थी। आपमें से कितने लोग सड़क पर उतरे थे....? क्या यह बर्बरता नहीं थी या इन बच्चों की जान की कीमत इसलिए नहीं थी कि ये राजधानी से नहीं बल्कि किसी जिले के सुदूर कस्बे में रहते थे...। तृणमूल का एक नेता जग से प्रहार कर शिक्षिका का सिर फोड़ देता है...तब शिक्षकों का मान खतरे में नहीं पड़ता...चयनित विरोध इस देश में लोकतन्त्र स्थापित नहीं कर सकता...बॉलीवुड के तमाम सितारे जेएनयू पहुँच सकते हैं क्योंकि जो प्रचार उनको जेएनयू देगा...वह इस्लामपुर का स्कूल नहीं दे सकता।
FILE PHOTO OF PROTESTS IN JNU AGAINST THE HANGING OF AFZAL GURU IN 2016https://freepresskashmir.com/2017/12/25/jnu-cancels-srinagar-entrance-examination-centre-its-strategy-allege-kashmiri-students/
ये जेएनयू ही है और साथ में लिंक भी है
तय कीजिए कि आपकी लड़ाई किससे है...आपको केन्द्र से, भाजपा से, संघ के होने से आपत्ति है...घृणा है क्योंकि वे हिंसा फैला रहे हैं....मगर उतनी ही कट्टरता आपके अन्दर भरी है...विद्यार्थियों का दमन सत्ता पक्ष हमेशा से करता आया है मगर आज सत्ता आपके वैचारिक विरोधी के पास है इसलिए आप विरोध कर रहे हैं,..काश कि आप विद्यार्थियों के लिए लड़ते..जिन प्रोफेसरों का वेतन लाखों में है...वह क्या चाहें तो विद्यार्थियों को नि:शुल्क नहीं पढ़ा सकते.? आप खुद से पूछिए कि आप सही मायनों में कितनी बार विद्यार्थियों के लिए उतरे हैं...उनके प्रश्न उठाए हैं...निजी स्कूलों में मोटा वेतन पाने वालों ने कितनी बार अपने संस्थानों में फीस वृद्धि का विरोध किया है ? सबको पता है कि छात्र संगठन के चुनाव वर्चस्व का मामला है, बंगाल के कॉलेजों में होने वाली हिंसा के कारण कितने प्रिंसिपल इस्तीफा दे चुके हैं...यह अराजकता आपकी चिन्ता का कारण क्यों नहीं बनती?

अगर जयचन्द गलत है तो बख्तियार खिलजी भी सही नहीं है...चयनित विरोध के कारण आम जनता साहित्य और साहित्यकारों से दूर हो रही है..सवाल यह है कि अगर आप वैचारिक लोकतन्त्र की वकालत करते हैं तो वह लोकतन्त्र किसी वाद या दल विशेष तक सीमित क्यों है...क्यों कि किसी दल विशेष का होने की वजह से किसी नेता अथवा नेत्री को अपमानित होना चाहिए...आपको दिल्ली की हिंसा दिखती है तो बंगाल की हिंसा क्यों नहीं देखते आप?
आन्दोलन का मतलब अराजकता नहीं होता और साजिशें रचने में कोई छात्र संगठन या नेता पीछे नहीं है...आप शौक से आन्दोलन कीजिए मगर जो विद्यार्थी या शिक्षक अपना काम करना चाहते हैं...उनको खींचने या धमकाकर लाने का लाइसेंस आपको किसने दे दिया.? सिर्फ इसलिए कि आप किसी पार्टा या विचारधारा को पसन्द नहीं करते....आप उनको लेकर फैसला नहीं कर सकते...जो बात एक पक्ष के लिए सही है,,,वह दूसरे पक्ष के लिए गलत नहीं होनी चाहिए और न हो सकती है..।
विद्या विनय देती है...आपने अपने विद्यार्थियों में सिर्फ अहंकार और अकड़ भरी है.....और आप इसे सफलता मानते हैं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं है। यही अकड़ उनकी समस्याओं की जड़ है...अनुशासनहीन आन्दोलन कभी भी स्वीकार नहीं हो सकता...। सच तो यह है कि संस्थानों में इस तरह की राजनीति और राजनीतिक पार्टियों के लिए जगह होनी ही नहीं चाहिए...और अगर स्वागत करना है तो स्वागत सबका कीजिए। आन्दोलन और अराजकता के फर्क को समझिए और नहीं समझेंगे तो आने वाला इतिहास आपको माफ नहीं करेगा।

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