काश...सुशांत आप अपने बेस्ट फ्रेंड होते...



सुशांत सिंह राजपूत अब हमारे बीच नहीं हैं। वह सुशांत जो न जाने कितने युवाओं का आदर्श रहे और वह एक सफल जीवन जी रहे थे। आज यह कहा जा रहा है कि अवसाद ने उनकी जान ले ली। सुख की परिभाषा को लेकर नये मुहावरों से पूरा सोशल मीडिया पट गया है। यह सही है कि अवसाद की जड़ कहीं न कहीं अकेलेपन से उपजे विषाद में है मगर क्या सच इतना सा है....नहीं, सच इतना सा नहीं है। झाँकने की जरूरत है कि जिस समय आप सोशल मीडिया पर ज्ञान दे रहे हैं, आपके आस - पास और आपके अपने बच्चों को आपने कहाँ तक समझा है..समझा है या नहीं..। क्या आप उसकी जिद और जरूरतों का फर्क समझ रहे हैं?
मुझे यह सवाल करने का बड़ा मन है कि जो लोग कह रहे हैं कि अभिभावकों से बात की जाये...क्या उन अभिभावकों ने संवाद के लिए माहौल बनाया है? बच्चे आपसे डरते हैं और वह डर प्रेम नहीं है...और उनका यह डर आपको अच्छा भी लगता है। क्या आप अपने बच्चों की असहमति को सुनने और समझने का दम रखते हैं? क्या अपने बच्चों में आपने इतना साहस भरा है कि वह आपके सामने वह सब कुछ कह सकें जो आपको पसन्द नहीं हो? सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या भारतीय समाज में बच्चों के जन्म के पीछे का कारण सिर्फ प्रेम ही होता भी है? क्या यह सच नहीं है कि बच्चे के जन्म का कारण सामाजिक दबाव भी है...फलाना 2 बच्चों की माँ बन गयी...फलाना के बच्चे स्कूल जाने लगे...और यहाँ बंजर जमीन है...ये सब वाक्य कौन कहता है?
सच तो यह है कि हमारे यहाँ बच्चों का जन्म दम्पति की इच्छा से अधिक इसलिए होता है कि शादी को इतने साल हो गये...बच्चा नहीं हुआ...पड़ोस में बातें होने लगी हैं....समाज क्या कहेगा...वंश कैसे चलेगा...इतनी लड़कियाँ हो गयीं, अब तो कुल का एक चिराग चाहिए..........मुझे दादा - दादी, पिता, फलाना - ढिमकाना बनना है....ऐसे तानों से तंग आकर अगर कोई लड़की माँ या दम्पति अभिभावक बनते हैं तो आपको लगता है कि वह इस अनचाही सन्तान को प्रेम दे सकेंगे...जबकि वे तैयार ही नहीं हैं? आपको कोई फर्क नहीं पड़ता कि बहू या बेटी की नौकरी छूटेगी..बेटे को गृहस्थी बसानी अब तक नहीं आई...वह तैयार भी नहीं हैं...माता - पिता बनने के लिए मगर 'वह आपको खुश करने के लिए अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा देते हैं और आप इस जीत का बाकायदा जश्न मनाते हैं और वह बच्चा आपकी ट्रॉफी बन जाता है...खुद से पूछिए क्या यह आपका अधिकार है...।
अच्छा हमारे घर में बच्चे. कभी बच्चों की तरह जी सके हैं...बेचारे ने आँखें खोली ही नहीं कि आप उसे डॉक्टर व इंजीनियर बनाने के सपने देखने लगते हैं। उसे चित्रकार बनना है और आप उसे क्रिकेटर बनायेंगे। शर्मा जी का बेटा स्कूल में टॉप कर रहा है तो बच्चों को 10 ट्यूशन पढ़ाएँगे....बगैर यह समझे कि उस पर कितना भार पड़ रहा है....औऱ उस पर से ताने भी....इतना कुछ तो कर रहा हूँ...शहर के सबसे महँगे स्कूल में पढ़ाया...महँगे से महँगा खिलौना दिया.....और क्या चाहिए? क्या बच्चे ने कभी माँगा था यह सब कुछ? आप उसके लिए नहीं, अपनी जिद के लिए मेहनत कर रहे हैं और फल उसकी जिन्दगी को दाँव पर लगाकर पाना चाहते हैं...क्या यही प्यार है? लड़की हुई औऱ साँवली हुई तो उसे हमेशा दबी हुई रंगत की याद दिलवाने वाले भी आप ही हैं।
माफ कीजिएगा....मैं नहीं मानती कि माँ - बाप का प्यार निःस्वार्थ होता है...बिल्कुल नहीं होता...और सारे बच्चे उनके लिए बराबर भी नहीं होते। वे अपने मेधावी, प्रतिभाशाली और सुन्दर बच्चों पर अधिक ध्यान भी देते हैं और उनके कारण दूसरे बच्चों को दबाते भी हैं। सच तो यह है कि जो बच्चा उनकी आँकाक्षाओं पर खरा उतरता है, जो उनका बुढ़ापा सुरक्षित रख सकता है...वह उसी के पीछे भागते हैं, उसी के हितों की रक्षा करते हैं और उसी के लिए दूसरे हर बच्चे को दबाते हैं...आप इसे प्यार कहते होंगे...मैं नहीं मान सकती। दशरथ के चार बच्चे थे...वन में सीता - लक्ष्मण भी गये तो फिर वे राम का नाम लेकर क्यों मरे? बुढ़ापे को सुरक्षित रखने के लिए खुद माएँ बेटियों को जहर दे सकती हैं...बहुओं के साथ अन्याय कर सकती हैं...अधिकतर तब जब बेटा बड़ा हो..क्योंकि घर का मालिक वही होता है...और यही प्रश्रय पाकर उसमें वर्चस्व की भावना पनपती है...वह अपने भाई - बहनों को मनुष्य नहीं बल्कि अपना आश्रित और बहुत हद तक सम्पत्ति समझता है...आर्थिक क्षमता के कारण वह उनके जीवन और सपनों को मार देना अपना अधिकार समझता है...और इसकी जड़ माँ के उसी प्रेम में है..वरना इतनी हिम्मत युधिष्ठिर में कहाँ से आ गयी कि उसने अपने भाइयों और पत्नी तक को दाँव पर लगा दिया? अगर ऐसा न होता तो जिस बेटे ने उसके तमाम बेटों और बहू को दाँव पर लगा दिया, कुन्ती उस युधिष्ठिर के हाथ काट देती। हस्तिनापुर की पुत्रवधू के चीरहरण का प्रयास करने वाले दुर्योधन को गाँधारी उसी समय श्राप देती...विकर्ण का साथ देती मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो इसका कारण यही था कि दोनों को पता था कि सम्राट दोनों में से कोई एक बनेगा और उनकी वृद्धावस्था उनके साथ ही सुरक्षित रहेगी। महात्मा गाँधी होंगे बहुत महान, पर वह एक अच्छे पिता नहीं थे..बच्चों के साथ तो हमेशा कस्तूरबा ही रहीं। मैं कैसे मान लूँ कि माता - पिता के लिए हर बच्चा बराबर है जबकि यही माँ बेटी के हिस्से का घी बेटों को देती है..उसे सबके बाद खाने की नसीहत देती है...उसे बड़े बच्चों का ध्यान रहता है और उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके छोटे बच्चे अपने भाई - बहनों की सम्पत्ति बन गये हैं और पारिवारिक जिम्मेदारियों के नाम पर शोषण के शिकार हैं...। भतीजों को स्कूल छोड़ने से लेकर घर के काम तक उसके जिम्मे हैं और अगर उसने शादी नहीं की तब तो वह पूरे घर का गुलाम है...जब वह झुँझलाता है...नाराज होता है तो सबको गलती उसकी ही दिखती है मगर अपने भीतर झाँकने की हिम्मत नहीं है। क्या जिसकी शादी नहीं होती, उसका अपना कोई सुख या निजी जीवन नहीं होता...और खासकर वह लड़की हो...तब तो उसे अक्सर याद दिलाया जाता है कि...वह इस घर पर बोझ है और शादी होती तो इतने बच्चों की माँ होती। शादी करना या न करना, किसी का निजी अधिकार है...निजी चयन है...आखिर इसे तय करने वाला आपका समाज कौन होता है? मेरी बहुत से युवाओं से बात होती है और सब के सब अपने माता - पिता का बहुत आदर सम्मान करने वाले मिले...यहाँ तक कि उनके सुख के लिए उन सबने अपनी इच्छाओं का गला तक घोंटा  मगर आज तक मुझे एक भी अभिभावक ऐसा नहीं मिला जिसने यह कहा हो कि उसके लिए उसका बच्चा किसी भी बिरादरी या समाज से बड़ा है और वह उनकी इच्छा का सम्मान करते हैं? आपकी नजर में यह ममता हो सकती है, माफ कीजिए मेरी नजर में नहीं है।
जो बच्चा जितने बड़े पद पर है...वह उतना ही दुलारा है...क्योंकि उनके पैसों से सबकी जिन्दगी चलती है मगर कभी भी उसने न तो अपना बोझ बाँटा और न अपने दुःख बाँटे...और आप समझते रहिए कि आप गंगा तर गये। जब बेटियों को उनके ससुराल में कष्ट होता है तो उनको समाज की याद दिलाकर  एडजस्ट करके सह जाने की सीख देने वाले यही माता - पिता होते हैं...। दहेज हत्या हुई तो मामले को रफा - दफा करवाने में खुद लड़की के माता - पिता शामिल रहते हैं क्योंकि उनको बदनामी का डर रहता है। अशोक तोदी...प्रियंका के कौन हैं...ये बताने की जरूरत नहीं है। महानता का ये जो आवरण आपने लगा रखा है....अब उसे खोल दीजिए....घिनौना लगता है ये सब।
जो बेटी जितने बड़े और समृद्ध घर में ब्याही गयी है...उसका आदर -सत्कार उतना ही अधिक होता है....यह पक्षपात क्या  बाहर से आकर कोई करता है... समानता भारतीय परिवारों ने आखिर सिखायी कब और नहीं सिखाई तो बच्चों को घुटन नहीं होगी तो क्या होगी? बहुत कम माता - पिता होते हैं जो औसत और कमजोर बच्चों के साथ खड़े रहें और ऐसे माता - पिता हैं मगर अपवाद की तरह..यकीन न हो तो कभी किसी मानसिक अस्पताल का चक्कर लगा लीजिए।
अब बात आती है प्रेम की तो मध्यमवर्गीय परिवारों में तो बेटियों की माएँ लड़कों से बात करने की मनाही करती हैं और ऐसा न करने पर जहर खिला देने की बात भी करती हैं...आपको इसमें ममता दिखती है...मुझे नहीं दिखती...बेटी या बेटे को दुर्भाग्य या सौभाग्य से प्रेम हो गया तो सबसे पहले उसकी जासूसी होगी...समझाया जायेगा...दोस्तों को कोसा जाएगा...पढ़ाई छुड़वाने की तमाम कोशिशें (खासकर लड़कियों के मामले में) की जाएँगी और किसी भी प्रकार उनको प्रताड़ित करके उनको भटकने से बचाने की तथाकथित कोशिश होगी...बेटों के साथ भी यह होता है मगर इमोशनल ब्लैकमेलिंग होती है पर यह फैक्टर काम करता है कि लड़का है...हाथ से चला गया तो क्या करोगी...लड़कियों की जबरन शादी की जाती है या उनको मजबूरन शादी करनी पड़ती है (खासकर तब जब उसे बीच भंवर में उसके प्रेम ने छोड़ दिया हो)....तो ऐसी स्थिति में बच्चों के लिए कौन सा सुखी संसार रच रहे होते हैं...उसका ताना - बाना मैं भी समझना चाहूँगी...आप कहेंगे...मेरे भीतर आग है...जी हाँ है...जरूर है...क्योंकि मैंने अपनी क्लासमेट और सहेली को ऐसे ही खोया है.....वह बहुत मेधावी थी...उसके मोतियों जैसे अक्षर आज भी मेरी डायरी में दर्ज हैं...जब देखती हूँ..अन्दर कुछ टूटता है....।
अपराधबोध और धोखा...जब एक साथ मिले और पास में कोई न हो तो कोई क्या करे...आपके आस - पास, आपके अपने ही घर में महीनों से कोई खामोश पड़ा है...क्या आपने एक बार भी उसका हाथ पकड़कर पूछा...कि वह क्या कहना चाहता है? उसको सुनने की फुरसत है आपके पास?
आस - पास इसी दहेज के कारण जानें जाती देखी हैं...इसलिए तकलीफ तो है...मैंने युवाओं को टूटते - तड़पते देखा है इसलिए दर्द तो है...जिन्दगी भर संघर्ष रहा है तो मेरी समझ में यह सब आता है....
अब बात सुशांत की....तो पहले उनका संघर्ष देखिए...आज जो रो रहे हैं...उनमें से कई ऐसे भी होंगे जिन्होंने 'ऐ बिहारी' कहकर उनका मजाक उड़ाया होगा...सब जानते हैं कि अंकिता के साथ वे गम्भीर रिश्ते में थे...और 6 साल दोनों साथ रहे....सुशांत जिस समाज से थे क्या उनके इस अर्न्तजातीय प्यार के लिए जगह रही होगी? क्या बेटे को चुरा लेने के आरोप अंकिता पर नहीं लगे होंगे...बेटियों को जूझने और लड़ने की आदत तो पड़ ही जाती है पर क्या बेटों को हार मान लेना, जाने देना, खुद को अभिव्यक्त करना सिखाया है कभी आपने। वह यही सुनता आया है कि मर्द रोया नहीं करते...औरतों को कंट्रोल करना सिखाया है...मेल इगो आपने उसकी नस - नस में डाला है...तभी तो वह इन्कार नहीं सह पाता। जब आप अपने बच्चों को बिरादरी, स्टेटर, रुतबा और समाज का सबक सिखा रहे होते हैं तो एक बार उनकी आँखों में झाँकिये...उस वक्त उनके भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है। सुशांत के भीतर भी टूटा होगा...उनके और भी रिश्ते टूटे और वे किसी के सामने नहीं खुल सके। शादी कोई रिहैबिलिटेशन सेंटर नहीं है और न ही शादी कर देने से किसी समस्या का समाधान होता है मगर अधिकतर समाधान इसी में खोज लिए जाते हैं...अगर सुशांत खुद के साथ एक रिश्ता बना सकते, अपने लिए बोल सकते....लड़ सकते...तब शायद सब कुछ सही होता
आप बात प्यार की करते हैं और आपका परिवारवाद प्रतियोगिता, घृणा, द्वेष, विषमता पर टिका है..आखिर परिवारों में एक लोकतान्त्रिक परिवेश क्यों नहीं हो सकता। बकवास मत कीजिए....आपके समाज में प्रेम विवाह के लिए जगह नहीं है और अन्तर्जातीय शादियों के लिए तो बिल्कुल नहीं है। मतलब आपने बच्चों को समझ क्या रखा है...वह क्या मशीन हैं जो एक दिल निकालकर रख दिया और दूसरा फिट कर लिया....एक इन्सान को चाहने का मतलब भी आपके समाज को पता होता तो इतनी ऑनर - किलिंग नहीं होती हमारे देश में। अपने कलेजे में जहाँ पत्थर रखा है...वहाँ से एक झील निकालिए...
 मूव ऑन होना, न कहना और न को स्वीकारना, आज के युवाओं को सीखना पड़ेगा। किसी पर भी इतना अधिक निर्भर न रहें कि वह आपकी जरूरत बन जाए और आपके मानसिक शोषण व अवसाद का कारण भी...खुद से एक रिश्ता बनाइए क्योंकि आपके सबसे अच्छे दोस्त आप खुद हैं....और आपका विकल्प सिर्फ आप हैं..कोई दूसरा नहीं।

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