भारतीय पत्रकारिता में राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय चेतना और पत्रकार

जब भी लिखिए...कर्मचारी बनकर नहीं बल्कि एक भारतीय बनकर, एक मनुष्य बनकर लिखिए । नये भारत में समानता, उदारता, भारत की अखंडता, जागरुकता लाने में जनता को सच बताने में पत्रकारिता और पत्रकारों की बड़ी भूमिका है और हम पत्रकारों को इस भूमिका का निर्वहन वैसे ही करना होगा जैसे हमारे पूर्वजों ने नवजागरण काल में किया, वैसी ही मशाल जलानी होगी जो पराधीन भारत में जली और सूर्य उदित हुआ । पत्रकारिता की चेतना का सूर्य भी उदित होगा...अवश्य होगा और भोर का सूरज समाज के हाथ में हम पत्रकार ही रखेंगे
राष्ट्रीयता आज के दौर में बहुचर्चित शब्द है और लम्बे समय के बाद इस शब्द को लेकर इतने विवाद हो रहे हैं । राष्ट्रीयता का आशय यदि भारतीयता से हो तो निश्चित रूप से यह एक सकारात्मक शब्द है मगर जब राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को जब आप विशेष धर्म के दायरे में समेटने लगते हैं तो वहाँ पर समस्या होती है और आज यही हो रहा है । आज पत्रकारिता के क्षेत्र में हर मीडिया हाउस का अपना राष्ट्रवाद है, अपनी परिभाषा है मगर सत्य कटु होने पर भी कहना पड़ा रहा है कि मीडिया की नीतियों का, उसकी सोच की अपनी कोई धारणा मुझे नहीं दिखती, वह बदलती है...और उसकी विचारधारा भी बदलती है सत्ता के केन्द्र में बैठी विचारधारा में ही वह राष्ट्र भी खोज लेती है और राष्ट्रीयता भी खोज लेती है । जब तक सत्ता में कांग्रेस थी, वह नेहरू, गाँधी की बात करती रही और आज जब सत्ता के केन्द्र में सनातन, हिन्दू विचारधारा का बाहुल्य है तो मीडिया में भी उसका बोलबाला है । कारण भी है क्योंकि मीडिया मिशन नहीं है, प्रोफेशन है और व्यावसायिक हितों को लेकर काम करना उसकी जरूरत है क्योंकि उस पर बहुत से परिवार निर्भर हैं । बहरहाल आगे बढ़ने से पहले राष्ट्रीयता...जो कि बांग्ला का जातीयता शब्द है, उस पर चर्चा करते हैं । ‘राष्ट्रीयता’ शब्द अंग्रेजी भाषा के नेशनलिटी (Nationality) शब्द का हिन्दी अनुवाद है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के नेशियो (Natio) शब्द से हुई है, इस शब्द से जन्म और जाति का बोध होता है। राष्ट्रीयता एक सांस्कृतिक तथा आद्यात्मिक भावना है, जो लोगों को एकता के सूत्र में बाँधती है। इसी भावना के कारण लोग अपने देश एवं भूमि तक से प्यार करते हैं। इस प्रकार राष्ट्रीयता एक भावात्मक शब्द है। इसी भावना के कारण लोग अपने देश पर संकट आने की स्थिति में अपने तन, मन और धन का बलिदान करने से भी पीछे नहीं हटते हैं। जे. एच. रोज के अनुसार, “राष्ट्रीयता हृदयों की वह एकता है, जो एक बार बनने के बाद कभी खण्डित नहीं होती है।” राष्ट्रीयता की परिभाषाएँ - राष्ट्रीयता की पूर्ण एवं सम्यक परिभाषा करना एक कठिन काम है किन्तु कुछ विद्वानों ने इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इन विद्वानों की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं- जिमर्न के अनुसार- “राष्ट्रीयता सामूहिक भावना का एक रूप है, जो विशिष्ट गहनता, समीपता तथा महत्ता से एक निश्चित देश से सम्बन्धित होती है।” ब्लंटशली के अनुसार- राष्ट्रीयता मनुष्यों का वह समूह है जो समान उत्पत्ति, समान जाति, समान भाषा, समान परम्पराओं, समान इतिहास तथा समान हितों के कारण एकता के सूत्र में बँधकर राज्य का निर्माण करता है। प्रो. गिलक्राइस्ट के शब्दों में- “राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक भावना या सिद्धान्त है, जिसकी उत्पत्ति उन लोगों में से होती है, जो साधारणतः एक जाति के होते हैं, जो एक भूखण्ड पर रहते हैं तथा जिनकी एक भाषा, एक-सा धर्म, एक इतिहास, एक-सी परम्पराएँ तथा एक-से हित होते हैं तथा जिनके राजनीतिक समुदाय तथा राजनीतिक एकता के एक-से आदर्श होते हैं।” डॉ. बेनीप्रसाद के अनुसार- “राष्ट्रीयता की निश्चित परिभाषा करना कठिन है। परन्तु यह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक गतिविधियों में यह पृथक अस्तित्व ही उस चेतना का प्रतीक है, जो सामान्य आदतों, परम्परागत रीति-रिवाजों, स्मृतियों, आकांक्षाओं, अवर्णनीय, सांस्कृतिक सम्प्रदायों तथा हितों पर आधारित है।” हेज के अनुसार- “राष्ट्रीयता उन व्यक्तियों के समूह को कहते हैं, जो या एक भाषा या परस्पर मिलती-जुलती बोलियाँ बोलते हैं तथा जिनकी सामान्य ऐतिहासिक परम्पराएँ होती हैं और इस प्रकार वे विशिष्ट सांस्कृतिक समाज की रचना करते हैं।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते है कि “राष्ट्रीयता एक ऐसी भावना है, जिसके कारण एक देश के लोग एकता के सूत्र में बँधे रहते हैं और जो देश एवं देशवासियों के के प्रति वफादार रहने की प्रेरणा देती है।” मीडिया भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध है तो जेम्स आगस्ट्स हिकी ने ही इसकी नींव भारत के इसी कलकत्ता शहर में डाली थी । भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता को बाधित करने वाला पहला प्रेस अधिनियम गवर्नर जनरल वेलेजली के शासनकाल में 1799 को ही सामने आ गया था। भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक जॉन्स आगस्टक हिक्की के समाचार पत्र 'हिक्की गजट ' को विद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। हिक्की को एक साल की कैद और दो हजार रुपये जुर्माने की सजा हुई। राजा राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किए। जिसमें अहम हैं-साल 1816 में प्रकाशित 'बंगाल गजट’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। यह नवजागरण का दौर था और समाज सुधार में पत्रकारिता की बड़ी भूमिका रही है । पत्रकारिता स्वाधीनता आन्दोलन के प्रसार का माध्यम बनी और तब भारतेंदु के साथ गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कई गण्यमान्य नेताओं ने अखबार निकाले । गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू विष्णुराव पराड़कर, महावीर प्रसाद द्विवेदी...ऐसे असंख्य नाम हैं जिन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से हिन्दी की साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रचना को एक स्वस्थ आधार दिया । 1857 में गैंगिंक एक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेस ऑडिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारी कानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के उद्देश्य से लागू किए गए। अंग्रेजी सरकार इन काले कानूनों का सहारा लेकर किसी भी पत्र-पत्रिका पर चाहे जब प्रतिबंध, जुर्माना लगा देती थी। आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकों को कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत की भारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती। बावजूद इसके समाचार पत्र संपादकों के तेवर उग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुद तय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती, जुर्माना के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुए। हिन्दी के पहले समाचार पत्र “उदंत मार्तण्ड” का प्रकाशन 30 मई 1826 ई. में कोलकाता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में हुआ था। पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने इसकी शुरुआत की, उस समय देश में अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला भाषा में समाचार पत्र निकलते थे, किन्तु हिन्दी में कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था। जुगल किशोर शुक्ल कानपुर के रहने वाले थे। लेकिन उस समय औपनिवेशिक भारत में उन्होंने कलकत्ता को अपनी कर्मस्थली बनाया था। परतंत्र भारत में भारतीयों के हित की बात करना बहुत बड़ी चुनौती थी। इसलिए उन्होंने कलकत्ता के बड़ा बाजार इलाके में आमड़तल्ला लेन, कोलूटोला से साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। यह साप्ताहिक पत्र हर सप्ताह मंगलवार को पाठकों तक पहुंचता था। ‘उदन्त मार्तण्ड’ एक साहसिक प्रयोग था, इसके पहले अंक की 500 प्रतियां छपी थी। पाठकों की कमी की वजह से उसे समुचित सहयोग और समर्थन नहीं मिल सका। हिंदी भाषी राज्यों से दूर होने के कारण उन्हें समाचार पत्र डाक द्वारा भेजना पड़ता था, डाक शुल्क बहुत ज्यादा होने के कारण इसे इन राज्यों में भेजना मुश्किल था। उस समय बिना किसी आर्थिक मदद के अखबार निकालना दुष्कर कार्य था, अत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका। अपने प्रकाशन के शैशवकाल में ही करीब डेढ़ साल बाद दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन स्थायी रूप से बंद हो गया। जब इसका प्रकाशन बंद हुआ, तब अंतिम अंक में प्रकाशित अपील दोहा रूप में थी जिसे शुक्ल जी ने बेहद मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया था। आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त । अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त ।। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले 'उदंत मार्तण्ड’ को हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है। अपने समय का यह खास समाचार पत्र था, मगर आर्थिक परेशानियों के कारण यह जल्दी ही बंद हो गया। आगे चलकर माहौल बदला और जिस मकसद की खातिर पत्र शुरू किए गए थे, उनका विस्तार हुआ। समाचार सुधा वर्षण, अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नया हिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण, बुन्देलखण्ड केसरी, मतवाला जैसे दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक पत्र तो सरस्वती, विप्लव, अलंकार, चांद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंट्यर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुए वतनपरस्ती के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्वान किया। नतीजतन उन्हें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुष्चक्र से गुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। 'वर्तमान पत्र’ में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखा 'राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख, 'अभ्युदय’ का भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, 'नया हिन्दुस्तान’ के साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फासीवादी विरोधी लेख, 'स्वदेश’ का विजय अंक, 'चांद’ का अछूत अंक, फांसी अंक, 'बलिदान’ का नववर्षांक, 'क्रांति’ के 1939 के सितम्बर, अक्टूबर अंक, 'विप्लव’ का चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनैतिक चेतना फैलाने के इल्जाम में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हें जब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतना पड़ा। बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुर से 1920 में प्रकाशित 'वर्तमान’ ने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र 'अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का हामी था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदनमोहन मालवीय, पंडित जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए। जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध-जुर्माना का सामना करना पड़ा। गणेश शंकर विद्यार्थी का 'प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चौहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला 'नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का 'क्रांति’ यशपाल का 'विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। 'नया हिन्दुस्तान’ और 'विप्लव’ के जब्तशुदा प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है। फासीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद, पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ देखी जा सकती है। आजादी के संघर्ष में तेवर (ध्यान रहे 1857 में भी दिल्ली में उर्दू का ‘पयामे-आजादी’ (बाद में वह हिंदी का) अंग्रेजों के खिलाफ यदि विद्रोही था तो 1919 में दिल्ली का ‘विजय’ और ‘प्रताप’ साप्ताहिक खालिस अंग्रेज विरोधी सियासी अखबार था, जिसके सूत्रधारों में एक गणेश शंकर विद्यार्थी भी थे। तभी आजादी पूर्व का यह सत्य नोट रहे कि भाषाई पत्र-पत्रिकाएं आजादी से पूर्व अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी थीं। उनके बहुत पीछे अंग्रेजी पत्रकारिता थी।जो अखबार पहले अंग्रेजपरस्त थे वे आजादी के बाद तुरंत नेहरूपरस्त हुए। नेहरू अधिकांश संपादकों-मालिको के आप्तपुरूष। अंग्रेजी के आला अखबारों का रूख (रामकृष्ण डालमिया का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अपवाद था) पेशेवर होने के बावजूद, एज मिस्टर नेहरू राइटली सेड के भाव और भाषा में बदल गया था। तब नेहरू की हर बात सही मानी जाती थी। इस माहौल से तंग आ कर साठ के दशक में बांग्ला भद्रलोक के एक विचारमना लेखक नीरद सी चौधरी ने नेहरू सरकार को राजशाही करार दिया। उनका अंग्रेजी लेखन पैना था और नेहरू अंग्रेजीदां थे, वे पढ़ते थे तो उन्हें वे बरदाश्त नहीं हुई। कहते हैं नेहरू की नाराजगी से नीरद चौधरी की रेडियो नौकरी नहीं चली। चौधरी दिल्ली और देश के माहौल से इतने तंग आए कि ब्रिटेन जा बसे। ऐसे ही वीएस नायपाल ने साठ के दशक में भारत आ कर देखा तो कोफ्त से लिखा- दिल्ली का पूरा माहौल दरबारी है और हर कोई अपने को नेहरू के करीबी दिखना-बतलाना चाहता है। अखबार एक सा राग अलपाते हुए है। अब आज की बात करते हैं । प्रिंट के साथ टीवी और वेब मीडिया ने पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांति तो लायी किंतु चैनलों की बाढ़ ,चौबीसों घंटों ख़बरों के प्रसारण ने समाचारों की सार्थकता को कठघरे में ला दिया। आपातकाल की चोट हिन्दी पत्रकारों पर भी पड़ी, नक्सल आन्दोलन भी मीडिया ने देखा । सत्ता की आवाज भी पत्रकारिता बनती रही है । विशेष रूप से दूरदर्शन और आकाशवाणी को अगर सरकार की आवाज कहा जाए तो गलत न होगा । यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसकी पहुँच देश के कोने - कोने तक है और प्रभाव भी बहुत अधिक है । प्रिंट मीडिया मुद्दे को समझा सकता है पर आज बात समझने का समय किसके पास है ? अपनी विचारधारा के प्रसार के लिए फर्जी खबरों का सहारा लिया जा रहा है, बाकायदा ट्रोल करके मनोबल गिराने वाली सेना तैयार की जा रही है मगर सच कोई नहीं बता रहा । विरोध करने वाले भी आलोचना के चरम पर हैं और समर्थन करने वाले भी अंधभक्ति की तमाम सीमाएं पार कर रहे हैं...इस सन्दर्भ में अगर राष्ट्रीयता का उल्लेख करें तो राष्ट्रवादी पत्रकारिता का अर्थ ऐसी पत्रकारिता है जो किसी विशेष धर्म या समुदाय के समर्थन और विरोध से ऊपर उठकर देश को जोड़ने वाली पत्रकारिता करे। परफेक्शन जैसी कोई चीज नहीं होती और हमारा सत्य हमारा वर्तमान है...हम अतीत को वापस लाने के चक्कर में उसकी जर्जर परम्पराओं का गौरव गान करेंगे तो यह राष्ट्रीय चेतना के अनुरूप नहीं होगा...दोनों ही पक्षों को समझना होगा कि भारत अब आगे बढ़ चुका है...अब वह न तो सनातन के नाम पर साम्राज्यवादी गौरव की तरफ लौटेगा और न ही मुगल काल की धर्मांध मानसिकता उसे स्वीकार है । मेरी नजर में पत्रकारिता में राष्ट्रवादी चेतना तब होगी जब हम किसी एक का अतिरंजित गुणगान कर दूसरे पक्ष को नीचा नहीं दिखाएंगे । हर शासन में गलतियाँ होती हैं, अच्छाइयाँ भी होती हैं...और कोई भी प्रधानमंत्री चाहे वह लाख नाकारा हो, अपने देश का बुरा नहीं चाह सकता...सही है कि व्यक्तिगत हित भारी पड़ते हैं..कई बार पर उसके भाव हमेशा गलत नहीं होते । नेहरू से गलतियाँ हुईं होंगी पर आप उनका समय देखिए...एक तुरन्त आजाद होने वाले देश को...जो वीभत्स विभाजन के रक्तपात से गुजर रहा हो...जिसके पास आर्थिक क्षमता को बढ़ाने का रास्ता न दिख रहा हो...वह मानसिक रूप से कितना जूझ रहा होगा पर विदेशी नीतियों में वे मार खाते रहे । आज इन्दिरा गाँधी के कारण हमारे पास राष्ट्रीयकृत बैंक हैं तो आपातकाल और ऑपरेशन भिंडरावाले को लेकर आज भी उनकी आलोचना होती है । मोदी सरकार ने भी चुनौतियों का सामना किया है ...कोविड -19 को लेकर वह बहुत जूझती रही है...कश्मीर और तीन तलाक...अच्छे काम हैं मगर इस सरकार में स्त्रियों के लिए कुछ खास नहीं है..वह यह नहीं समझ पा रही है कि नये भारत का नागरिक भी समानता की चाह रखता है...स्त्री और पुरुष, दोनों ही मानसिक स्तर पर परिपक्व हो रहे हैं । धर्म और राजनीति का कॉकटेल बना देना और सनातन के नाम पर दूसरे धर्मों को उपेक्षित करना...मेरी नजर में यह सही नहीं है...आज जंतर - मंतर पर जिस तरह से हमारे पदक विजेताओं का अपमान हो रहा है...वह सारी जनता देख रही है ...शासन हमेशा बन्दूक लेकर नहीं होता...दुनिया को जीतने की नहीं, समझने की जरूरत पड़ती है..जब प्रधानमंत्री पिता के स्थान पर हैं तो अपने होनहार बच्चों से मिलने में उनको क्या परेशानी है... जन सरोकार की दृष्टि से देखे तो पत्रकारिता मे जन समान्य की पीड़ा और उनके मुद्दो का कवरेज घटता जा रहा है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस पत्रकारिता ने एक शताब्दी तक शोषित, पीडित और वंचित समाज की समस्याओं को केंद्र मे रखकर जन जागरण के राष्ट्रव्यापी अभियान का नेतृत्व किया वही पत्रकारिता अब ज़्यादातर नेताओं, उद्योगपतियों और बड़े संस्थानो के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। पत्रकारिता मे जन सरोकारों का घटता प्रतिशत आज की पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं। देश की बहुसंख्यक आबादी ग्रामीण हैं, लेकिन ग्रामीणों की समस्याएं, उनकी आवश्यकताओं और अभावों की चर्चा राष्ट्रीय पत्रों मे बहुत कम होती हैं। आंचलिक पत्रकारिता का विकास जरूरी है, विकास की चेतना और नई टेक्नोलॉजी की जानकारी प्रयोगशालाओं से गांव तक ले जाने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में आंचलिक पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। देश के ग्रामीण अंचलों में सामाजिक चेतना का विकास करने में सबसे बड़ी भूमिका क्षेत्रीय समाचार पत्रों की रही है। अतीत में जो हुआ, वह गलत हुआ पर उसका प्रतिशोध आप वर्तमान से नहीं ले सकते । बहुत कुछ टूटा है तो बहुत कुछ ऐसा है जिसे हम जोड़ सकते हैं और इसका माध्यम पत्रकारिता बनेगी मगर तभी जब वह राजनीति के साथ साहित्य, संस्कृति और इतिहास के सकारात्मक पक्ष को देखना सीखेगी । आप रहीम, रसखान, राही मासूम रजा की बात कीजिए..आज लव जेहाद का बड़ा कारण वह असुरक्षा है जो दोनों ही तरफ के युवाओं में है..उस असुरक्षा को दूर कीजिए..बच्चों से बात कीजिए...जज मत बनिए...72 हूरों और अप्सराओं की थ्योरी देने वालों को जरा नियंत्रित करिए । इन्टेंशन किसी सरकार का गलत नहीं होता, सब देश को चाहते हैं मगर अपनी जड़ताओं और मान्यताओं से आगे बढ़ने में उनको परेशानी होती है । संसद को धर्म संसद मत बनाइए...क्या ही अच्छा हो कि नयी संसद में हमें रसखान, गुरु नानक, महावीर के साथ कबीर...सूर..मीरा दिखें...यह एक अलग चर्चा का विषय है पर राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए सभी धर्मों, संस्कृतियों. परम्पराओं की सकारात्मक, सृजनात्मक बातों को लेकर हमें एक नया राष्ट्रवाद लाना होगा और वह सिर्फ भारतीयता हो सकती है...और कुछ नहीं । अतिरंजित तथ्य बताना अथवा आवश्यक तथ्य छुपाना, पत्रकारों को इससे बचना चाहिए । कई बार मीडिया ट्रायल जरूरी तथ्य दबा देता है । निश्चित रूप से पत्रकारों पर दबाव रहता है । पत्रकारिता आज भी आजाद नहीं है मगर सीमित संसाधनों के बीच भी सकारात्मक पत्रकारिता राष्ट्रीय चेतना को एक सही दिशा दे सकती है । राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय चेतना कोई मैराथन नहीं है, कोई प्रतियोगिता भी नहीं है । यह हमारी अंतर्चेतना है । यह जब हमारी अनुभूति बनती है तो अभिव्यक्ति हृदय से होती है और हृदय से होने वाली अभिव्यक्ति तमाम मिथ्याचारों के काले अन्धेरे के बीच अपना सूर्य खोज निकालती है । जरूरत है कि पत्रकारिता में जागरुक राष्ट्रीय चेतना, मानवता की आवाज अंदर से उठे । जब भी लिखिए, जब भी बोलिए...याद रखिए कि आप किसी एक संस्थान के ही नहीं हैं...समूचा देश आपको आशा भरी नजरों से देख रहा है । जब भी लिखिए...कर्मचारी बनकर नहीं बल्कि एक भारतीय बनकर, एक मनुष्य बनकर लिखिए । नये भारत में समानता, उदारता, भारत की अखंडता, जागरुकता लाने में जनता को सच बताने में पत्रकारिता और पत्रकारों की बड़ी भूमिका है और हम पत्रकारों को इस भूमिका का निर्वहन वैसे ही करना होगा जैसे हमारे पूर्वजों ने नवजागरण काल में किया, वैसी ही मशाल जलानी होगी जो पराधीन भारत में जली और सूर्य उदित हुआ । पत्रकारिता की चेतना का सूर्य भी उदित होगा...अवश्य होगा और भोर का सूरज समाज के हाथ में हम पत्रकार ही रखेंगे । यह दायित्व भी है और विश्वास भी । (सन्दर्भ - सर्वोदय प्रेस मीडिया, हस्तक्षेप, नया इंडिया) वर्तमान पत्रिका हिन्दी दैनिक में प्रकाशित

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