बिहार चुनाव में शराबबंदी, प्रशांत किशोर और मीडिया

बिहार चुनाव हाल ही में बीता है और नीतीश सरकार ने प्रचंड बहुमत के साथ वापसी की है। गौर करने वाली बात यह है पिछले कुछ सालों से महिलाएं खुलकर मतदान करती आ रही हैं। पुरुषों के लिए चुनाव सत्ता बदलने का माध्यम हो सकता है मगर महिलाओं के लिए हर चुनाव उनके अस्तित्व की लड़ाई होता है। बिहार में भी चुनाव ऐसा ही था। सच तो यह है कि बिहार में एनडीए की जीत से महिलाओं में खुशी थी मगर निराशा पुरुषों में ज्यादा रही। पता है, इसका प्रमुख कारण क्या था, वह यह कि विपक्ष ने वापसी के लिए शराबबंदी और गुंडागर्दी को हथियार बनाया। लोग लालू प्रसाद यादव के जंगलराज को नहीं भूले महिलाएं अपने साथ होने वाले अत्याचारों को। ऐसा नहीं है कि नीतीश राज में अपराध घटने की कोई शत-प्रतिशत गारंटी है मगर पहले से कम होने की, महिलाओं के स्वालंबन की गारंटी जरूर है। विपक्ष ने चुनाव जीतने के लिए महिलाओं की जिंदगी को दांव पर लगा दिया और हैरत की बात यह है कि ऐसा करने में वह पार्टी आगे रही जो बिहार में बदलाव की बड़ी -बड़ी बातें करती नजर आई। मेरी समझ के बाहर था कि बिहार में बदलाव लाने का यह कौन सा रास्ता था जो प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति ने शराब की नैया का सहारा लिया। सीधी सी बात है, उनको वोट से मतलब है। हर एक पार्टी को वोट से मतलब है और सबको पता है कि बिहार में शराबबंदी से महिलाओं का जीना आसान हुआ है मगर पुरुष समाज अभी भी पितृसत्तात्मक सोच के दबाव में अपना वही रुआब वापस लाने की ख्वाहिश पाले बैठा है जहां औरतें उसके लिए पैर की जूती रहीं। शराब उसकी अंधी सत्ता और अहंकार के प्रदर्शन का माध्यम है जिसके नशे में वह अपने घर का सब कुछ लुटा सकता है, औरतों पर अपनी मर्दानगी दिखा सकता था मगर किसी तेजस्वी या प्रशांत किशोर को इन बातों से क्या मतलब है? उनको तो चुनाव जीतना है, 28 हजार करोड़ के राजस्व के घाटे की बात बताकर...मैं पूछना चाहती हूँ..प्रशांत किशोर से...आप इतने पढ़े - लिखे हैं, आपके सम्पर्क इतने अच्छे हैं, आप अर्थशास्त्रियों के सम्पर्क हैं तो आपको शराबबंदी की बैसाखी क्यों चाहिए थी? तेजस्वी तो मान लिया कि नौवीं फेल हैं मगर आप तो शिक्षित थे, आपको चुनाव चिह्न भी स्कूल बैग मिला था। आप क्या कक्षाओं में बच्चों को शराब पीने की ट्रेनिंग देने को तैयार हैं। आप एलिट क्लास से हैं, आपका बच्चा आपके सामने शराब पीयेगा तो आप इसे आधुनिकता मानकर स्वीकार कर लेंगे मगर उन मध्यमवर्गीय परिवारों का क्या, जिनकी जिंदगी शराबखोरी ने तबाह की है। नीतीश ने भी माना था कि शराबबंदी से राज्य सरकार को हर साल 5,000-6,000 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान होता है। शराबबंदी की घोषणा के समय स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि यह नीति मैं महिलाओं के आग्रह पर ला रहा हूं। मैं जानता हूं कि इससे हमें राजस्व की हानि होगी, लेकिन यह समाज की बेहतरी के लिए है। इस बयान ने नीतीश कुमार को महिला समर्थक नेता के रूप में स्थापित किया। शराबबंदी ने इस बार भी महिला मतदाताओं के बीच एनडीए को अद्भुत समर्थन दिलाया।महिलाओं ने 10 हजार रुपए के बजाय शराबबंदी के नाम पर वोट दिया है। यही एनडीए और नीतीश कुमार की जीत का बड़ा कारण बना है। चुनाव आयोग ने पार्टी को 'स्कूल बैग' के चिह्न पर राज्य की सभी 243 सीटों पर ताल लड़ी और हार गयी और इसका कारण प्रशांत किशोर की बेशर्म स्वार्थपरता है जो सत्ता के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकती है। आप खुद को शिक्षित कहते हैं तो पहले एक बार शिक्षा शब्द का अर्थ किताबों में जाकर देखिए। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में दोनों चरणों में कुल मतदान 66.91 फीसदी रहा था। मतदान के दोनों ही चरणों में पुरुषों के मुकाबले में महिलाओं ने ज्यादा वोटिंग की। आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं का मतदान प्रतिशत 71.6 फीसदी रहा था। वर्ष 2015 में जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव का महागठबंधन जीता था, तब महिलाओं (60.48 प्रतिशत) ने पहली बार पुरुषों (53.32 प्रतिशत) को मतदान में पीछे छोड़ दिया था। इस परिवर्तन का सीधा असर चुनाव परिणाम पर पड़ा था। हालांकि, उस समय तक शराबबंदी लागू नहीं हुई थी, लेकिन महिलाओं को उम्मीद थी कि अगर नीतीश कुमार सत्ता में लौटे तो वह शराब पर रोक लगाएंगे। नीतीश कुमार ने इसी महिला समर्थन को साइलेंट रिवोल्यूशन कहा था और यही भावनात्मक जुड़ाव वर्ष 2016 में शराबबंदी लागू होने की पृष्ठभूमि बना। वर्ष 2020 के चुनाव में भी महिलाओं का मतदान प्रतिशत 59.58 और पुरुषों का 54.68 रहा था। महिला मतदाताओं की एकजुटता ने एनडीए और नीतीश कुमार को चुनौतीपूर्ण संघर्ष में जीत दिलाई थी। इस बार भी महिला वोटर एनडीए के लिए सत्ता की धुरी बनी हैं। जहां महिलाओं का वोट प्रतिशत 71.6 रहा, वहीं 62.8 प्रतिशत पुरुषों ने ही वोट डाला। यह अब तक का सबसे बड़ा अंतर है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि महिलाओं ने न केवल मतदान किया, बल्कि अपनी राजनीतिक चेतना को नए स्तर पर पहुंचाया है। नवोदित नेता प्रशांत किशोर ने तो शराबबंदी को खत्म करने का ऐलान तक कर दिया था। राजद और कांग्रेस ने शराबबंदी को नीतीश कुमार की सबसे बड़ी नीतिगत विफलता बताया था। हालांकि, नीतीश कुमार इसे अपनी नैतिक उपलब्धि मानते हैं। उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि शराबबंदी से घरेलू हिंसा घटी, महिलाओं की स्थिति सुधरी और पारिवारिक माहौल बेहतर हुआ। सवाल यह नहीं कि शराबबंदी नीति का उद्देश्य क्या था? बल्कि यह है कि उसका परिणाम क्या हुआ? बिहार में हुए हालिया सर्वे के अनुसार 95–99 प्रतिशत महिलाएं शराबबंदी का समर्थन करती हैं। उनका मानना है कि इस कानून ने घर की शांति लौटाई है। पति की आमदनी अब बच्चों की पढ़ाई में लगती है। सड़क पर महिलाओं की सुरक्षा बेहतर हुई है। प्रशांत किशोर इस हद तक नीचे गिर चुके हैं कि उन्होंने बिहार की स्वाभिमानी महिलाओं को लालची तक कह दिया। महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े मामलों पर मौनी बाबा बने रहे जबकि हकीकत यह है कि बिहार की महिलाओं के खाते में जब 10 हजार जाते हैं, तो उनको रोजगार का साधन भी मिलता है। बिहार की महिलाएं स्वावलंबी बन रही हैं। यह वह प्रशांत किशोर हैं जो आर जी कर पर मौन रहते हैं, संदेशखाली पर मौन रहते हैं, जब बंगाल में ममता दीदी लक्खी भंडार योजना चलाती हैं तो उनको बंगाल की महिलाएं लालची नहीं, मासूम लगती हैं। सत्य यह है कि बंगाल में लक्खी भंडार ने महिलाओं की सृजन शक्ति छीन ली है और युवाओं को काहिल बना दिया है, इतना स्वार्थी बना दिया है कि वे दूसरी महिलाओं का दर्द न देख पा रही हैं और न समझ पा रही हैं। तुष्टीकरण की राजनीति को देखकर भी सबके मुंह में दही जमा है। यह वही प्रशांत किशोर हैं जो ममता बनर्जी की सरकार बनवाने का दावा करते हैं और इनकी ही नीतियों के कारण आज बंगाल जल रहा है। चुनावी हिंसा में न जाने कितनों के घर छूटे मगर इनके मुंह से बोल नहीं फूटे। आप शायद वही हैं जिनको खुद नीतीश कुमार ने ही जदयू का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया, तब भी चाहते थे तो बिहार के लिए बहुत कुछ कर सकते थे मगर इन्होंने नहीं किया। यह वही प्रशांत किशोर हैं जिनके एक नहीं बल्कि दो मतदाता पहचान पत्र हैं और यह धांधली की बात करते हैं और अब तो इन्होंने अपने दर्शन करवाने के लिए एक हजार रुपये की डिमांड रख दी है। पिछले दस वर्षों में राज्य की राजनीति में महिलाओं ने न केवल मतदान का स्वरूप बदला है, बल्कि उन्होंने एक ऐसा मतदाता वर्ग तैयार किया है, जो अब चुनावी परिणामों को निर्णायक रूप से प्रभावित करता है। दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा अल्कोहल बाज़ार है। साल 2024 के आकंड़ों के मुताबिक, भारत का अल्कोहल का बाजार 4.4 लाख करोड़ रुपए को पार कर गया है, जो दुनिया के 90 से ज्यादा देशों की जीडीपी से ज्यादा है। भारत में हर साल लगभग 6 अरब लीटर की खपत होती है। जो साल दर साल बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, साल 2019 में प्रति व्यक्ति (15+आयु) शुद्ध एल्कोहल की खपत 5.5 लीटर थी। अब बात शराब के कारण होने वाले नुकसान की बात की जाए। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शराब का सेवन हर साल 26 लाख से ज्यादा लोगों की मौत का कारण बन रहा है। यह दुनिया भर में हो रही कुल मौतों का 4.7 फीसदी है। मतलब कि हर 20 में से एक मौत के लिए शराब जिम्मेवार है। वहीं नशीली दवाओं और ड्रग्स से होने वाली मौतों को भी इसमें जोड़ दें तो यह आंकड़ा बढ़कर 30 लाख से ज्यादा है। मरने वालों में पुरुषों का आंकड़ा कहीं ज्यादा रहा। आंकड़ों के मुताबिक जहां 20 लाख पुरुषों की मौत के लिए शराब जिम्मेवार रही, वहीं नशीली दवाएं सालाना चार लाख पुरुषों को जिंदगियां लील रही हैं। जनसत्ता में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 16 करोड़ या इससे अधिक लोग शराब पीते हैं। इनमें 95 प्रतिशत 18 से 49 वर्ष की आयु के हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सालाना दो लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं और इनमें से 75 प्रतिशत दुर्घटनाओं का कारण शराब पीकर गाड़ी चलाना है। बीते कुछ समय से शराब पीकर गाड़ी चलाने और लोगों को कुचल देने के अनेक मामले आए जिनमें कई अपराधी नाबालिग थे। बात शराबबंदी की हो रही है तो बात मीडिया और उन सभी संस्थानों की भी करने का मन है जहां शराबखोरी को प्रश्रय दिया जाता है। पत्रकार होने के नाते इस मामले में आउटडेटेड हूँ क्योंकि जहां शराबखोरी हो और बोतलें हों, जाम पर जाम छलकाए जा रहे हों..वहां पल भर भी रुकना गवारा नहीं है। कोई भी शहर हो...ये वहां के प्रेस क्लब हैं और कॉकटेल पार्टियां हैं जो युवा पत्रकारों को शराबी बना रही हैं। बुजुर्ग पत्रकार शराब के इतने आदी हो चुके हैं कि जिसकी बुराइयां वह लिखते हैं, जिस शराबखोरी पर स्टोरी करके ईनाम जीतते हैं, उसी शराब के बगैर उनको लगता है कि वह लिख नहीं सकते। एक समय था जब हमारे बड़े सही रास्ता दिखाते थे मगर आज के बड़े दोस्ती के नाम पर अपने बच्चों की उम्र के युवाओं के साथ बेशर्मी से जाम छलकाते हैं। हमारे कई युवा साथी पत्रकार असमय काल के ग्रास हो गये क्योंकि अत्यधिक मदिरापान से उनके लीवर सड़ गये, मल्टी ऑर्गन फैल्योर हो गया। आप तो चले जाते हैं मगर एक मिनट के लिए भी उन लोगों के बारे में नहीं सोचते जो आप पर निर्भर हैं। प्रेस क्लब और संस्थाओं का क्या है, वह तो एक तस्वीर पर माला चढ़ाकर अपनी ड्यूटी से फारिग हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर एक बड़ा सा पोस्ट लिखा और बात खत्म और तब तक एक युवा मौत की राह पर निकल पड़ा है। प्रेस क्लब की आलमारियों में शराब की बोतलों की जगह किताबें देखने का इंतजार जारी रहेगा। जारी रहेगा इंतजार जहां युवाओं को राष्ट्र निर्माण से जुड़े प्रशिक्षण मिलें। काश कि ऐसे लोग कभी अपनी सत्ता के मद से बाहर निकलकर उस मासूम की गुहार सुन सकें जिसने शराबखोरी के कारण अपने पिता या माता को खोया है...तब तक हम आउटडेटेड ही भले।

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