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छठ पूजा : आधुनिकता, समानता, प्रकृति के रंग से सजी परम्परा

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छठ पूजा को पर्यावरण की दृष्टि से सबसे अनुकूल माना गया है। परम्परा और प्रकृति से जोड़ने वाला यह पर्व अनूठा है और अभी हाल ही में मनाया भी गया मगर दुःखद है कि कुछ आधुनिक और बुद्धिजीवी अंग्रेजीदां अखबार और पत्रकार अपने निजी हितों और सस्ती लोकप्रियता के लिए हमारी परम्परा को निशाना बना रहे हैं...कहा जा रहा है कि छठ पूजा के कारण रवीन्द्र सरोवर और सुभाष सरोवर में प्रदूषण फैल रहा है...ये तथाकथित आधुनिक भूल जाते हैं कि इस पूजा में जो अवयव हैं, उसमें केमिकल नहीं है, प्रतिमा नहीं है इसलिए लेड भी नहीं है...जो है...वह है फूल, और पत्तियों जैसे अवयव जो पानी में घुल जाते हैं और इनसे खाद भी बनायी जाती है...ऐसे लोगों को छठ के बारे में ज्ञान नहीं है...इसलिए उनके जैसे लोगों के लिए ही यह लेख हैं...हमें नहीं पता कि इसका कितना असर पड़ेगा मगर समय आ गया है कि ऐसे लोगों को बताया जाए कि उनकी हद कहाँ तक है और उनकी सीमा क्या है...फिलहाल छठ पर यह लेख... कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन छठ पूजा की जाती है। इस पूजा का आयोजन पूरे भारत वर्ष में एक साथ किया जाता है। भगवान सूर्य को समर्पित इस पूजा में सूर्य

सरंचना चाहिये तो खर्च करिये, बहाने मत बनाइये

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हम सब न बड़े कनफ़्यूज़ लोग हैं, वेतन ज्यादा से ज्यादा चाहिये, भत्तों में कमी बर्दाश्त नहीं, सुविधायें ए क्लास चाहिये, हमें स्टेटस की ऐसी लत लगी है की बजट न हो, तब भी कर्ज लेकर, खर्च कम करके बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ायेंगे मगर सरकारी स्कूलों को सुधारने पर ध्यान नहीं देंगे। अब जरा आपत्तिजनक बात करती हूँ। इनमें से कई गरीब और जरूरतमंदों को धरने देते समय ऐसी सिगरेट पीते देखी है, जिसका एक पैकेट ही 100-150 रुपये का आता होगा, हॉस्टल्स से शराब की बोतलें भी पकड़ी गईं हैं, आउटसाइडर आते हैं, पड़े भी रहते हैं, मैने ऐसे भी विद्यार्थी देखे हैं जो कड़े परिश्रम से पढ़ते और पढ़ाते हैं, नौकरी करते हैं, और अपने सपने पूरे करते हैं। हमें सरंचना चाहिये और 10 रुपये किराये में रहना है। इस देश में गरीब हैं मगर गरीबी बाधा नहीं बनती तभी यहाँ ए पी जे कलाम हुए जिन्होने अखबार बेचकर पढ़ाई की। अगर आप अपनी वेतन वृद्घि के लिए 40 साल इन्तजार नहीं कर सकते तो किसी संस्थान को इस कड़ी प्रतियोगिता और महंगाई के बीच क्यों फीस बढ़ाने के लिए इन्तजार करना चाहिये, क्या ये बेहतर नहीं होगा की विद्यार्थियो के लिए आंशिक कार्य की व्यव्

भारत के पर्व सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना का उल्लास हैं....समझिए

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पर्व और त्योहार ,,,,हमारी सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक प्रगति की आवश्यकता है। इनको निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करना गलत है मगर हो यही रहा है।  पशुओं में भी जीव है, कुत्तों में तो जान बसती है, गाय तो फिर भी काम की नहीं और बकरा भी, इनकी जान की कोई कीमत नहीं है। पशुओं से भी भेदभाव, कुत्ता क्लास बढ़ाता है, गाड़ियों में घूम सकता है, गाय का गोबर गन्दा है और अमेज़न ऑर्गेनिक होकर बिकता है, फिर भी गाय की सेवा करने वाले दकियानूसी हैं। कुत्ता आपसे सेवा करवाता है, आप भी उसका मल उठाते हैं मगर फिर भी आप अभिजात्य हैं, कई दर्जा ऊपर हैं एक जगह पढ़ा था जानवर कहलाना इन्सान की अपमान लगता है, और शेर कहा जाये तो उछलता है, शेर में जानवर ही न या कोई अलग श्रेणी है। कुछ लोग तो इसलिये नाराज हो जाते हैं की कुत्ता को कुत्ता क्यों कहा, कुतिया को कुतिया क्यों कहा, अब ये न कहें तो क्या कहें। जब बिल्ली को बिल्ली, बैल को बैल कह सकते हैं तो भला कुत्ते को कुत्ता क्यों न कहें? क्या ये अन्य जानवरों से अन्याय नहीं है? कुत्ते को ज्यादा भाव देकर आप उसका तुष्टिकरण कर रहे हैं वैसे गाय मरने के बाद भी खाल दे जाती है, वह दम्भी और पागल

बॉलीवुड को धकेल कर एक दूसरे के घाव हरे होने से बचाइए...बस यही सौहार्द है

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क्या यह जरूरी था...एकता दिखाने का क्या यह एकमात्र रास्ता है जबकि हम मानसिक तौर पर तैयार ही नहीं है जब मुझसे कोई बुरे लहजे से बात करता है..या किसी के साथ कड़वे अनुभव हों...तो मैं नजरअन्दाज कर भी दूँ तो उसे माफ नहीं कर पाती...यह आपके साथ भी होता होगा...परिवार बँट जाते हैं तो उनको अलग होना पड़ता है...वह दूर हो जाते हैं....मगर दूर होकर भी पास रहते हैं। अगर दूर नहीं भी होते तो एक सीमा बन ही जाती है....अपने - अपने दायरे में अपनी - अपनी दुनिया में हम जी रहे होते हैं....अब सवाल है कि आज यह किस्सा छिड़ा ही क्यों....सवाल तो मतभेद और असहमतियों के बीच साथ रहने का है...। बस यही वजह है...अब इस निजी घटना को देश और धर्म के चश्मे से दूर रखकर देखिए...। गंगा - जमुनी तहजीब की बात की जाती है...रोटी - बेटी के रिश्ते की बात की जाती है...(बेटे की बात क्यों नहीं होती...ये तो अब भी नहीं पता है)...और यह सब कहते हुए यह बात भुला दी जाती है कि गंगा का भी अपना अस्तित्व है और जमुना यानी यमुना का भी....तो ये दोनों नदियाँ अपना अस्तित्व खोकर एक दूसरे में मिल जाएं,..क्या यह इतना जरूरी है औऱ सबसे बड़ी बात कि क्या हम मानसि

हिन्दी और सिनेमा : किसी काम की नहीं...हट जाने दें ये दूरियाँ

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साहित्य औऱ अभिव्यक्ति के अन्य कई क्षेत्रों का एक बेहद अनूठा सम्बन्ध रहा है। खासकर हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध पत्रकारिता से तो बहुत ही गहरा है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी पत्रकारिता का आरम्भिक काल साहित्य को साथ लेकर चला है। भारतेन्दु जितने सफल लेखक हैं, उतने ही अच्छे पत्रकार भी हैं। उन्होंने 'बाल विबोधिनी' पत्रिका, 'हरिश्चंद्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा' पत्रिकाओं का संपादन किया। इस कड़ी में बाल मुकुन्द गुप्त, उपेन्द्र नाथ 'अश्क' अज्ञेय समेत अनगिनत साहित्यकारों का नाम आता है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी साहित्य जब तक पत्रकारिता के साथ रहा, तब तक दोनों का ही स्वर्णिम काल रहा मगर हिन्दी की समस्या यह है कि इसे शुद्धतावादियों ने ऐसी अभिजात्यता से लाद दिया है कि हिन्दी का हाथ धीरे - धीरे सबसे छूटता गया। हिन्दी के बौद्धिक दिग्गजों ने इसकी सरलता को अपने अहंकार से काट डाला और हालत यह है कि असुरक्षा के बोध से लदे हिन्दी के साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवियों के अहंकार ने हिन्दी को उपेक्षित और अकेला कर दिया है।  पत्रकारिता जैसी ही स्थिति हिन्दी सिनेमा

काश...सुशांत आप अपने बेस्ट फ्रेंड होते...

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सुशांत सिंह राजपूत अब हमारे बीच नहीं हैं। वह सुशांत जो न जाने कितने युवाओं का आदर्श रहे और वह एक सफल जीवन जी रहे थे। आज यह कहा जा रहा है कि अवसाद ने उनकी जान ले ली। सुख की परिभाषा को लेकर नये मुहावरों से पूरा सोशल मीडिया पट गया है। यह सही है कि अवसाद की जड़ कहीं न कहीं अकेलेपन से उपजे विषाद में है मगर क्या सच इतना सा है....नहीं, सच इतना सा नहीं है। झाँकने की जरूरत है कि जिस समय आप सोशल मीडिया पर ज्ञान दे रहे हैं, आपके आस - पास और आपके अपने बच्चों को आपने कहाँ तक समझा है..समझा है या नहीं..। क्या आप उसकी जिद और जरूरतों का फर्क समझ रहे हैं? मुझे यह सवाल करने का बड़ा मन है कि जो लोग कह रहे हैं कि अभिभावकों से बात की जाये...क्या उन अभिभावकों ने संवाद के लिए माहौल बनाया है? बच्चे आपसे डरते हैं और वह डर प्रेम नहीं है...और उनका यह डर आपको अच्छा भी लगता है। क्या आप अपने बच्चों की असहमति को सुनने और समझने का दम रखते हैं? क्या अपने बच्चों में आपने इतना साहस भरा है कि वह आपके सामने वह सब कुछ कह सकें जो आपको पसन्द नहीं हो? सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या भारतीय समाज में बच्चों के जन्म के पी

महामारी को मात दो...फिर अपनी धरती पर लौटो,,,माटी पुकार रही है

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21 दिनों के लॉकडाउन ने बहुत कुछ दिखाया...बुरे वक्त में अच्छे और बुरे कई तरह के लोग दिखे...घटनायें दिखीं....समय के साथ हर चीज आयेगी - जायेगी...मगर एक चीज कभी किसी सच्चे भारतीय खासकर बिहार, झारखंड या यूपी के रहने वालों के कलेजे में टीस बनकर रहेगी....रहनी चाहिए...यह वह आग है जिसका जिन्दा रहना बहुत जरूरी है मगर इसके लिए सुरक्षित और जिन्दा रहना जरूरी है....इसलिए तमाम दिक्कतों के बाद भी अपनी लड़ाई को जिन्दा रखने के लिए लॉकडाइन का पालन करो....मगर अपमान की इस आग को बुझने मत देना.....खुद को इसमें झोक  दो और कुन्दन बनकर लौटो..। लौटो कि यही आग इन राज्यों को, पूर्वान्चल की उस जनता को एक नया जन्म देगी...। जब कभी आप होली के रंगों में अपने परिवार के साथ डूबे रहते हैं....जब दिवाली पर दीये जला रहते हैं...तब ये लोग अपने घरों में नहीं रहते...वह आपके घरों में फूल सजा रहे होते हैं....वह एक प्यार भरी दुलार के लिए तरस जाते हैं...क्योंकि जबकी इसकी जरूरत होती है तब आप उनसे अपनी कम्पनी की बिक्री बढ़वाते हैं...। आपकी मशीनों पर काम करते हुए न जाने कितने मर जाते हैं...कितने अपाहिज हो जाते हैं...उनकी हड़ताल