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वाइ ओनली मेन

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वाई ओनली मेन डांस इन इंडिया। फ्राँस से आयी शारर्टाल ने जब ये सवाल मुझसे पूछा तो मेरे पास कोई जवाब नहींं था। मैंने हमारी सभ्यता और संस्कृति की लफ्फाजी में उनको घुमाने की कोशिश की मगर छठ के हर गीत पर झूमती शार्टाल के लिए नृत्य उल्लास की अभिव्यक्ति है जो स्त्री और पुरुष का फर्क नहीं देखती मगर यह भारत है जहाँ खुलकर अभिव्यक्ति करने की छूट पितृसत्तात्मक समाज को है। स्त्रियाँ फिल्मों में पेड़ के इर्द - गिर्द नायक से गलबहियाँ करती तो अच्छी लगती हैं मगर वास्तविक जीवन में अगर कोई स्त्री इस तरह से अभिव्यक्ति करे तो सीधे उसकी परवरिश से लेकर चरित्र  पर ही सवाल उठेंगे। प्रकृति से मिले अधिकार भी लाज - संकोच और शर्म की बेड़ियों में बाँधकर हम खुद को सभ्य कहते है औऱ यही हिचक हम स्त्रियों में भी है। तुम्हारे सवाल का जवाब हमारे पास अभी नहीं है शार्टाल, उसकी तलाश जरूर कर रहे हैं हम
आइसक्रीम खाएंगे, जब मैंने रस्सी पर खेल दिखाती गौरी से बतियाने की कोशिश की तो गौरी का पहला वाक्य यही था। नीचे भीड़ खड़ी उसका तमाशा देख रही थी, पास ही कानून के पहरेदार भी थे मगर आँखों के सामने बालश्रम या यूँ कहें, कि बच्ची की जान को दाँव कर लगाकर तमाशा देखने वाले अधिक थे। गौरी 2 साल से ही सयानी हो चुकी है, घर चलाने के लिए और भाई के इलाज के लिए अपने भाई -बहनों के साथ खेल दिखाती है मगर उसकी छोटी सी आँखों में बचपन पाने की चाह को छोड़कर मैं कुछ नहीं देख पायी। माँ कहती है कि उसकी बेटी सब कर लेती है, बेटी जब खेल दिखाती है तो माँ और भाई नीचे चलतेे दिखे, भाई ऊपर जाता तो गौरी नीचे चलती। ऊँची पतली रस्सी पर खड़ी गौरी पता नहीं दुनिया को तमाशा दिखा रही थी या नीचे खड़े तमाशबीनों का तमाशा देख रही थी, पता नहीं मगर मन बहुत परेशान हो गया। गौरी मानों अब तक मेरा पीछा कर रही है, मैं उसकी कहानी पहुँचा सकूँ, इसके अलावा फिलहाल और कुछ नहीं कर सकती। माँ को भी दोष कैसे दूँ मगर दोषी फिर कौन है, गरीबी, व्यवस्था या कुछ और। पता नहीं मगर उसकी आवाज गूँज रही है - आइसक्रीम खाएंगे
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ऐसा लगता है कि पुरस्कार वापसी की रेल निकल पड़ी है जिसमें एक के बाद एक डिब्बे जुड़ते चले जा  रहे हैं। हर कोई खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने में जुटा है, वैसे ही जैसे बच्चे कक्षा में प्रथम आने की तैयारी कर रहा हो। हर कोई रूठा है, हर किसी को शिकायत है मगर जख्म पर मरहम लगाने की अदा ही शायद लोग भूल गये हैं। दादरी से लेकर दिल्ली तक, हर जगह माँ भारती कराह रही है। पुरस्कारों से तौबा करने की जगह शायद नफरत से तौबा होती तो कोई राह भी निकलती। काश, लोग समझ पाते कि राम और रहीम, दोनों इस जमीन के ही बेटे हैं। खून किसी का भी बहे, चोट तो माँ को ही लगनी है। 
पत्रकारिता जगत में एक दशक तो हो गया, जब आयी थी तो हिन्दी अखबारों में महिलाएं देखने को नहीं मिलती थीं और आज हैं तो होकर भी जैसे नहीं हैं। अखबारों में जिस तरह से खबरों में उनको किसी मसालेदार सब्जी की तरह परोसा जाता है, उसे देखकर कोफ्त होती है। सच तो यह है कि भारतीय हिन्दी अखबार अभी तक पत्रकारिता क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। खासकर आपराधिक खबरों में तो या उनको अपराधी की तरह या फिर वस्तु की तरह पेश किया जा रहा है और कहीं कोई  प्रतिरोध नहीं है। कदम पर महिला पत्रकारों के मनोबल को तोड़ने का प्रयास चलता रहता है। वे मनोरंजन और जीवनशैली से लेकर शिक्षा स्तर और राजनीतिक स्तर पर कवरेज कर सकती हैं मगर निर्णय में उनकी भागीदारी हो सकती है, यह बात कोई समझने को तैयार नहीं है और तब तक यह बात नहीं समझी जाएगी जब तक महिलाएं उनको समझने पर मजबूर न कर दें।
जुलाई चला गया और जाते - जाते भारत के मिसाइलमैन पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम को साथ ले गया। आज स्वतंत्रता दिवस पर देश को उनकी कमी बेहद खली मगर वह छोड़ गये एक सपना जिसे पूरा करना अब हर भारतीय का दायित्व है। ऐसा राष्ट्रपति जो कह गया कि उनके जाने के बाद भी काम हो, अवकाश न हो। मेरे देश, तुझे एक और कलाम की जरूरत है, सुभाष की जरूरत है। वंदे मातरम्
इस साल की बोर्ड परीक्षाएं तो समाप्त हुईं मगर हर साल की तरह नतीजे हैरत में डालने वाले थे। माध्यमिक और उच्चमाध्यमिक की परीक्षा में झंडा फहराने वाले जिले आईएससी और सीबीएसई की परीक्षा में नहीं दिखे। एकबारगी मानना मुश्किल था कि जिस शहर ने देश को एक नहीं दो टॉपर दिए, उसके नतीजे इतने खराब होंगे। जिलों के प्रति सहानुभूति और कोलकाता के प्रति विरक्ति नजरअंदाज करना कठिन है। लड़कियाँ तो मानों पीछे छूटती चली गयीं और ज्वाएंट एन्ट्रेंस परीक्षा के नतीजों ने तो मानो सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर लड़कियाँ हैं कहाँ? इन नतीजों के साथ एक बंधी - बँधायी मानसिकता भी दिखी, लड़कियाँ इंजीनियर नहीं बनना चाहतीं, शोध नहीं कर रहीं और विज्ञान में उनको दिलचस्पी नहीं है। जाहिर है जोखिम उठाने वाले क्षेत्रों में या समय लेने वाले क्षेत्रों में लड़कियाँ या तो खुद नहीं जाना चाहतीं या फिर उनको सामाजिक व्यवस्था इजाजत ही नहीं देती। महानगर में आयोजित हो रहे कॅरियर मेलों में भी लड़कियों की संख्या बेहद कम है। इन क्षेत्रों से होकर गुजरने वाले रास्ते निर्णायक रास्तों की ओर मुड़ते हैं और यही हाल रहा तो कहना पड़ेगा, दिल्ली अभी बहुत