हिन्दी वालों के हाथों सतायी जा रही है हिन्दी, बचाना आम जनता को होगा

हिन्दी को बचाने के लिए हिन्दी वाले अब सड़क पर उतरने की योजना बना रहे है। हवाई यात्रा कर दिल्ली पहुँच रहे हैं इसलिए कि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता न मिले। बड़ी - बड़ी संगोष्ठियाँ होती हैं, लाखों का खर्च होता है मगर जो बुनियादी मुद्दे हैं उस पर बात ही नहीं होती।


 40 साल से पुस्तक मेले में हिन्दी के प्रकाशक स्टॉल लगाते आ रहे हैं मगर पुस्तक मेले की आयोजन समिति में हिन्दी का कोई लेखक, प्रकाशक या बुद्धिजीवी नहीं है, हिन्दी के संरक्षक खामोश हैं। पत्रकार और हिन्दी का होनेे के नाते आवाज उठायी।

http://salamduniya.in/index.php/epaper/m/23910/58555716cc1b6

हिन्दी माध्यम स्कूलों में बच्चों को साल बीतने के बाद पाठ्यपुस्तकें मिलती हैं मगर कोई आवाज नहीं उठती और न कोई सड़क पर उतरता है। बंगाल में इस्लामीकरण और तुष्टिकरण की नीति राज्य सरकार ने अपना रखी है और शर्म की बात यह है कि इस पुस्तक की अनुवाद में प्रक्रिया में हिन्दी के विद्वान शामिल हैं।
सवाल यह है कि आर्थिक कारण व्यक्ति की सोच और अन्तरात्मा पर भारी कैसे पड़ते हैं और सवाल यह है कि ऐसे व्यक्ति को सम्मान क्यों मिलना चाहिए? हिन्दी का हित बुद्धिजीवियों का लेखकों के साथ रहने में नहीं है बल्कि आम जनता तक पहुुँचने में है।

आखिर हिन्दी साहित्य तक क्यों सीमित रहे? समय आ गया है कि आम आदमी अपनी भाषा को बचाने की जिम्मेदारी उठाए और हर उस व्यक्ति का बहिष्कार करे जो उसकी भाषा, संस्कृति, सम्बन्धों की परिभाषा पर कुठाराघात कर रहे हैं।
बच्चेे देश का ही नहीं समाज का भविष्य हैं और उनको इस तरह तैयार किया जा रहा है कि न तो वे अपनी भाषा समझेंगे और न ही अपनी संस्कृति। हिन्दी किसी और के हाथों नहीं हिन्दी वालों के हाथों सतायी जा रही है, अब आगे बढ़कर इसे छीनना होगा, बस यही एक रास्ता है। हिन्दी के दिग्गजों के कारनामे की बानगी पेश है।
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