समय की धूल में इतिहास को लपेटे मालदा का गौड़

बच्चों द्वारा आयोजित मालदा बाल फिल्म महोत्सव


मालदा बहुत विकसित जिला नहीं है। संरचना की कमी से परेशान इस जिले में विकास की जरूरत है। लोग मालदा को आम के लिए जानते हैं मगर पयर्टन के मानचित्र पर मालदा बहुत कम दिखता है। क्या पता इसकी वजह यह हो सकती है कि इस इलाके में अनुसन्धान की जरूरत जितनी थी, उतनी हुई नहीं है। ग्रामांचलों में जो संस्कृति छिपी है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया और जो स्थल पर्यटन का केन्द्र बन सकते थे, वे राजनीति मतभेदों और वोटबैंक की राजनीति की भेंट चढ़ गये।
अगर मालदा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना है तो आपको गौड़ जाना चाहिए। दूसरी बाल फिल्म महोत्सव की कवरेज करने जब 22 अगस्त को मालदा पहुँचे तो हमें भी यह मौका मिला। होटल वही था मगर इस बार यात्रा ट्रेन से हुई। प्रकृति को अपनी आँखों में भरते, फरक्का की गर्जना सुनते हम रात को होटल पहुँचे थे।
शम्पा अब बड़ी हो गयी और कॉलेज जाती है

यह देखकर अच्छा लगा कि 2 साल पहले जिन बच्चों को स्कूल में देखा था, वह आज कॉलेज में जा चुके हैं। अपना बाल विवाह रोकने वाली शम्पा अब कॉलेज में पढ़ती है।
कवरेज के बाद दूसरे दिन हमने गौड़ देखा जहाँ मिथक मानकर उपेक्षित छोड़ा गया इतिहास भी है, मुगलकालीन भव्यता के अवशेष भी हैं। चैतन्य महाप्रभु का विश्वास और उनके चरण चिन्ह भी आज तक हैं यहाँ तो इस बार यात्रा गौड़ की और उतना ही जितना देखा या देख सके।
 गौड़ को ऐतिहासिक इमारतों के कारण प्रसिद्धि प्राप्त है जो एक जमाने में बंगाल की राजधानी कहा जाता था।
सबसे पहले हम पहुँचे रामकेलि गाँव। यहाँ है 500 साल पुराना मदन मोहन मंदिर। मंदिर के पुजारी के मुताबिक यहाँ श्रीराम 4 दिन ठहरे थे और सीता ने पिंडदान यहीं किया था।
आज भी महिलायें यहाँ बिहार से पिंडदान करने आती हैं। सीता का कुंड और रामायण का वटवृक्ष होने की मान्यता भी है। रामकेलि गाँव की प्रसिद्धि यहाँ स्थित मदन मोहन जिउ मंदिर के लिए है। जिस स्थान पर यह मंदिर है, वहाँ वृन्दावन की तरफ जा रहे श्री चैतन्य देव ने विश्राम किया था। आज भी एक पत्थर पर उनके चरण चिह्न हैं। इसके साथ ही कदम्ब और तमाल के वृक्ष हैं जिसके पास यह मंदिर बनाया गया है मगर रामकेलि की ख्याति का एक और कारण है जिसके बारे में बात कम होती है।
पीछे जो मंदिर हैं, वहीं सुरक्षित हैं चरण चिह्न

500 साल पुराने इस मंदिर के पुजारी पूर्णचन्द्र पाणिग्रही ने बताया कि रामकेलि वह स्थान भी है जहाँ श्रीराम चार दिन के लिए रुके थे। रामकेलि वह स्थान भी है जहाँ स्थित एक कुंड में सीता ने पिंडदान किया था। सनातन धर्म में महिलाओं को पिंडदान की अनुमति नहीं है मगर इस स्थान पर आज भी बिहार से महिलाएँ पिंडदान करने आती हैं। इस दौरान एक मेला लगता है और आम तौर पर यह ज्येष्ठ, श्रावण और आषाढ़ में लगता है। यहाँ फिरोज मीनार के पास जहाँ यह कुंड है, वहीं पर एक बरगद का वृक्ष भी है। दावा किया जाता है कि यह वृक्ष भी काफी पुराना है। पंडित पाणिग्रही के मुताबिक महाप्रभु चैतन्य देव 15 जून 1515 को रामकेलि आये थे और रूप सनातन से उनकी भेंट भी इसी स्थान पर हुई थी।
पीछे पुजारी पूर्णचन्द्र पाणिग्रही। कहते हैं कि इस जगह पर श्रीराम चार दिन रुके और यहीं पर चैतन्य महाप्रभु ने विश्राम किया था
वह बताते हैं कि इस स्थान का उल्लेख रामकेलि पंजिका में भी किया गया है। विगत 62 साल से इस मंदिर को सेवायें दे रहे पाणिग्रही के मुताबिक इस स्थान को संरक्षण की जितनी जरूरत है, वह संरक्षण नहीं मिल रहा और न ही पुनरुद्धार के लिए सरकारें तत्पर दिखायी देती हैं।
 मंदिर बड़े कष्ट से चलता है। रामायणकालीन होना और श्रीराम या सीता से इस स्थान का सम्बन्ध होना एक शोध और फिलहाल विश्‍वास का विषय हो सकता है  मगर धर्म और पर्यटन, दोनों ही दृष्टियों से रामकेलि गाँव का अपना महत्व है। मंदिर के पास स्थित कुंड की हालत भी सही नहीं है।
यहाँ पर राज्य के मंत्री कृष्णेंदु नारायण चौधरी आये थे। मंदिर के 500 साल पूरे होने पर जो समारोह आयोजित हुआ था, उस दौरान यहाँ पर स्थित महाप्रभु चैतन्य देव की प्रतिमा स्थापित हुई जिसका अनावरण उन्होंने किया था। राम के नाम पर राजनीति करने वाले और राम से जुड़े शब्द किताबों से मिटाने वाले राम के नाम पर रामकेलि को नहीं जानते। यहाँ सोचने वाली बात यह है कि अगर चैतन्य प्रभु के कारण ही इस गाँव की प्रसिद्धि है तो उनके नाम पर इस गाँव का नाम क्यों नहीं पड़ा?
क्या सत्ताधारी पार्टी को यह डर है कि अगर राम के नाम पर इस जगह को विकसित किया गया तो विरोधी पार्टी इसका लाभ उठायेगी या फिर उन पर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने का ठप्पा लगेगा। क्या वोटबैंक के चक्कर में हम अपने ऐतिहासिक और पौराणिक स्थलों को उपेक्षित रखेंगे? क्या आपकी समझ में नहीं आता कि पर्यटन और इतिहास की दृष्टि को ध्यान में रखकर भी काम किये जा सकते हैं। बहरहाल पुरात्व विभाग इस दिशा में काम कर रहा है। सम्भव है कि सीता और राम को लेकर असहमतियाँ हों मगर पौराणिक, धार्मिक और पर्यटन की दृष्टि से रामकेलि का अपना स्थान है, इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते और इसका संरक्षण बेहद आवश्यक है।
बड़ा सोना मस्जिद के भीतर का दृश्य

12 दुआरी मस्जिद को भी संरक्षण की जरूरत है। यहाँ के पत्थरों में काई जमती जा रही है। सुल्तान नसरत शाह ने यह मस्जिद 1526 में बनवायी थी। इसे बड़ा सोना मस्जिद भी कहते हैं। 12 दरवाजे हैं। एक गुम्बद टूट चुका है। यहाँ पर महिलाओं के लिए दीर्घा भी हुआ करती थी। अन्दर भव्य मस्जिद है और बाहर बिलखता भविष्य, जिसकी देह पर कपड़े तक नहीं हैं। जो बोर्ड है, उस पर जंग लग चुकी है।
दाखिल दरवाजा

सलामी दरवाजा दाखिल दरवाजा के नाम से भी जाना जाता है। यह गौड़ के किले का उत्तरी प्रवेश द्वार कहा जाता है। यह 1425 में बनवाया गया। इसे बरबक शाह ने बनवाया था और इसी दरवाजे से तोपों की सलामी दी जाती थी। दाखिल दरवाजा टेराकोटा और छोटे लाल ईंटों से बना एक विशाल प्रवेश द्वार है। यह राजसी संरचना 34.5 मीटर चौड़ीऔर 21 मीटर ऊंची है।
फिरोज मीनार

फिरोज मीनार का निर्माणकाल 1486 से 1489 तक का माना जाता है। इसमें 73 सीढ़ियाँ हैं। इसका निर्माण सैफुद्दीन फिरोज ने करवाया था जो एक हब्शी था और बरबक शाह की हत्या कर सुल्तान बना था। यह मीनार 26 मीटर ऊंची है और दाखिल दरवाजा के दक्षिणपूर्व दिशा में है। यह एक स्वतंत्र संरचना है जो इस स्थान पर बिना किसी सहायक इमारत के खड़ी है। मीनार की ऊपरी दो पंक्तियों का आकार गोलाकार है, जबकि निचले वाले बहुभुज आकार के हैं। कुछ अनुमानों के मुताबिक इसका निर्माण मस्जिद के लिए एक मीनार के रूप में किया गया था। इसे विजय स्मारक भी कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि इसका शीर्ष प्रारंभ में समतल था और यहां एक गुंबद भी बना हुआ था।
मान्यता है कि यही वह कुंड है जहाँ सीता ने पिंड दान किया था। इस पर भी शोध की जरूरत है, दावे के साथ कुछ भी कहा नहीं जा सकता

इसी के सामने वह कुंड भी बताया जाता है जहाँ मान्यता है कि सीता ने पिंडदान किया था। इसके साथ ही एक बेहद पुराना वटवृक्ष आज भी देखा जा सकता है। बहरहाल, यह शोध और विश्वास का मामला है।
कहते हैं कि यह वटवृक्ष रामायणकालीन है। बहरहाल वास्तविकता तो पुरात्व विभाग ही बता सकता है पर बताये तो

फतेहखान का मकबरा 1658 से 1707 के बीच का है। यह औरंगजेब के सेनापति दिलावर खान के बेटे फतेह खान का मकबरा है।
फतेह खान के मकबरे के भीतर का दृश्य

फतेह खान को पीर नियामतुल्लाह की हत्या के लिए भेजा गया था क्योंकि उन्होनें सुल्तान शुजा को विद्रोह का परामर्श दिया था। कहा जाता है कि गौड़ में कदम रखते ही फतेह खान को खून की उल्टियाँ होने लगीं और उसने वहीं दम तोड़ दिया।

चीका मस्जिद 1450 में बनायी गयी थी। इस मस्जिद को बनाने में एक हिन्दू मंदिर के पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। विश्वास किया जाता है कि यह कोई हिन्दू समाधि हुआ करती होगी। इसे सुल्तान हुसैन द्वारा जेल की तरह इस्तेमाल किया जाता था। कदम रसूल मस्जिद भी पास ही है। उसे ठीक से देखा तो नहीं इस स्थल से एक किवदंती भी जुड़ी है, माना जाता है कि जब भी मुहम्मद चट्टान पर चलते थे तो उनके पदचिह्नों के निशान छूट जाता करते थे। इन निशानों के आसपास कई पवित्र स्थलों का निर्माण करवाया गया था। एक ऐसा ही स्थल है कदम रसूल मस्जिद।


वक्त कम था तो यहाँ से गये हम भारत - बांग्लादेश की सीमा, महाद्वीपपुर। बाकायदा अनुमति लेकर सामने बने छोटे टीले पर चढ़े। इस रास्ते पर खड़े ट्रक कई दिन और कई बार एक महीने तक इस इन्तजार में खड़े रहते हैं। हमने लोगों को एक लकीर से बँटते देखा, सीमा पर तैनात जवानो को मुस्तैद देखा और जय हिन्द कहकर वापस लौटे।


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