भारत के पर्व सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना का उल्लास हैं....समझिए
पर्व और त्योहार ,,,,हमारी सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक प्रगति की आवश्यकता है। इनको निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करना गलत है मगर हो यही रहा है। पशुओं में भी जीव है, कुत्तों में तो जान बसती है, गाय तो फिर भी काम की नहीं और बकरा भी, इनकी जान की कोई कीमत नहीं है। पशुओं से भी भेदभाव, कुत्ता क्लास बढ़ाता है, गाड़ियों में घूम सकता है, गाय का गोबर गन्दा है और अमेज़न ऑर्गेनिक होकर बिकता है, फिर भी गाय की सेवा करने वाले दकियानूसी हैं। कुत्ता आपसे सेवा करवाता है, आप भी उसका मल उठाते हैं मगर फिर भी आप अभिजात्य हैं, कई दर्जा ऊपर हैं एक जगह पढ़ा था जानवर कहलाना इन्सान की अपमान लगता है, और शेर कहा जाये तो उछलता है, शेर में जानवर ही न या कोई अलग श्रेणी है। कुछ लोग तो इसलिये नाराज हो जाते हैं की कुत्ता को कुत्ता क्यों कहा, कुतिया को कुतिया क्यों कहा, अब ये न कहें तो क्या कहें। जब बिल्ली को बिल्ली, बैल को बैल कह सकते हैं तो भला कुत्ते को कुत्ता क्यों न कहें? क्या ये अन्य जानवरों से अन्याय नहीं है? कुत्ते को ज्यादा भाव देकर आप उसका तुष्टिकरण कर रहे हैं वैसे गाय मरने के बाद भी खाल दे जाती है, वह दम्भी और पागल